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*श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण*

 

*उत्तरकाण्ड*

 

*अट्ठावनवाँ सर्ग*

 

*ययातिको शुक्राचार्यका शाप*

 

श्रीरामके ऐसा कहनेपर शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले लक्ष्मणने तेजसे प्रज्वलित होते हुए-से महात्मा श्रीरामको सम्बोधित करके इस प्रकार कहा—॥१॥

'नृपश्रेष्ठ! राजा विदेह (निमि) तथा वसिष्ठ मुनिका पुरातन वृत्तान्त अत्यन्त अद्भुत और आश्चर्य-जनक है॥२॥

'परंतु राजा निमि क्षत्रिय, शूरवीर और विशेषतः यज्ञकी दीक्षा लिये हुए थे; अतः उन्होंने महात्मा वसिष्ठके प्रति उचित बर्ताव नहीं किया'॥३॥

लक्ष्मणके इस तरह कहनेपर दूसरोंके मनको रमाने (प्रसन्न रखने)-वालोंमें श्रेष्ठ क्षत्रियशिरोमणि श्रीरामने सम्पूर्ण शास्त्रोंके ज्ञाता और उद्दीप्त तेजस्वी भ्राता लक्ष्मणसे कहा—॥४½॥

'वीर सुमित्राकुमार! सभी पुरुषोंमें वैसी क्षमा नहीं दिखायी देती, जैसी राजा ययातिमें थी। राजा ययातिने सत्त्वगुणके अनुकूल मार्गका आश्रय ले दुःसह रोषको क्षमा कर लिया था। वह प्रसंग बताता हूँ, एकाग्रचित्त होकर सुनो॥५-६॥

'सौम्य! नहुषके पुत्र राजा ययाति पुरवासियों, प्रजाजनोंकी वृद्धि करनेवाले थे। उनके दो पत्नियाँ थीं, जिनके रूपकी इस भूतलपर कहीं तुलना नहीं थी॥७॥

'नहुषनन्दन राजर्षि ययातिकी एक पत्नीका नाम शर्मिष्ठा था, जो राजाके द्वारा बहुत ही सम्मानित थी। शर्मिष्ठा दैत्यकुलकी कन्या और वृषपर्वाकी पुत्री थी॥८॥

'पुरुषप्रवर! उनकी दूसरी पत्नी शुक्राचार्यकी पुत्री देवयानी थी। देवयानी सुन्दरी होनेपर भी राजाको अधिक प्रिय नहीं थी। उन दोनोंके ही पुत्र बड़े रूपवान् हुए। शर्मिष्ठाने पूरुको जन्म दिया और देवयानीने यदुको। वे दोनों बालक अपने चित्तको एकाग्र रखनेवाले थे॥९-१०॥

'अपनी माताके प्रेमयुक्त व्यवहारसे और अपने गुणोंसे पूरु राजाको अधिक प्रिय था। इससे यदुके मनमें बड़ा दुःख हुआ। वे मातासे बोले—॥११॥

'माँ! तुम अनायास ही महान् कर्म करनेवाले देवस्वरूप शुक्राचार्यके कुलमें उत्पन्न हुई हो तो भी यहाँ हार्दिक दुःख और दुःसह अपमान सहती हो॥१२॥

'अतः देवि! हम दोनों एक साथ ही अग्निमें प्रवेश कर जायँ। राजा दैत्यपुत्री शर्मिष्ठाके साथ अनन्त रात्रियोंतक रमते रहें॥१३॥

'यदि तुम्हें यह सब कुछ सहन करना है तो मुझे ही प्राणत्यागकी आज्ञा दे दो। तुम्हीं सहो। मैं नहीं सहूँगा। मैं निःसंदेह मर जाऊँगा'॥१४॥

'अत्यन्त आर्त होकर रोते हुए अपने पुत्र यदुकी यह बात सुनकर देवयानीको बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने तत्काल अपने पिता शुक्राचार्यजीका स्मरण किया॥१५॥

'शुक्राचार्य अपनी पुत्रीकी उस चेष्टाको जानकर तत्काल उस स्थानपर आ पहुँचे, जहाँ देवयानी विद्यमान थी॥१६॥

'बेटीको अस्वस्थ, अप्रसन्न और अचेत-सी देखकर पिताने पूछा—'वत्से! यह क्या बात है?'॥१७॥

'उद्दीप्त तेजवाले पिता भृगुनन्दन शुक्राचार्य जब बारंबार इस प्रकार पूछने लगे, तब देवयानीने अत्यन्त कुपित होकर उनसे कहा—'मुनिश्रेष्ठ! मैं प्रज्वलित अग्नि या अगाध जलमें प्रवेश कर जाऊँगी अथवा विष खा लूँगी; किंतु इस प्रकार अपमानित होकर जीवित नहीं रह सकूँगी॥१८-१९॥

'आपको पता नहीं है कि मैं यहाँ कितनी दुःखी और अपमानित हूँ। ब्रह्मन्! वृक्षके प्रति अवहेलना होनेसे उसके आश्रित फूलों और पत्तोंको ही तोड़ा और नष्ट किया जाता है (इसी तरह आपके प्रति राजाके द्वारा अवहेलना होनेसे ही मेरा यहाँ अपमान हो रहा है)॥२०॥

'भृगुनन्दन! राजर्षि ययाति आपके अनादरका भाव रखनेके कारण मेरी भी अवहेलना करते हैं और मुझे अधिक आदर नहीं देते हैं'॥२१॥

'देवयानीकी यह बात सुनकर भृगुनन्दन शुक्राचार्यको बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने नहुषपुत्र ययातिको लक्ष्य करके इस प्रकार कहना आरम्भ किया—॥२२॥

'नहुषकुमार! तुम दुरात्मा होनेके कारण मेरी अवहेलना करते हो, इसलिये तुम्हारी अवस्था जरा-जीर्ण वृद्धके समान हो जायगी—तुम सर्वथा शिथिल हो जाओगे'॥२३॥

'राजासे ऐसा कहकर पुत्रीको आश्वासन दे महायशस्वी ब्रह्मर्षि शुक्राचार्य पुनः अपने घरको चले गये॥२४॥

'सूर्यके समान तेजस्वी तथा ब्राह्मणशिरोमणियोंमें अग्रगण्य शुक्राचार्य देवयानीको आश्वासन दे नहुषपुत्र ययातिको ऐसा कहकर उन्हें पूर्वोक्त शाप दे फिर चले गये'॥२५॥

 

इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके उत्तरकाण्डमें अट्ठावनवाँ सर्ग पूरा हुआ॥५८॥