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*श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण*

 

*उत्तरकाण्ड*

 

*उनासीवाँ सर्ग*

 

*इक्ष्वाकुपुत्र राजा दण्डका राज्य*

 

अगस्त्यजीका यह अत्यन्त अद्भुत वचन सुनकर श्रीरघुनाथजीके मनमें उनके प्रति विशेष गौरवका उदय हुआ और उन्होंने विस्मित होकर पुनः उनसे पूछना आरम्भ किया—॥१॥

'भगवन्! वह भयंकर वन, जिसमें विदर्भदेशके राजा श्वेत घोर तपस्या करते थे, पशु-पक्षियोंसे रहित क्यों हो गया था?॥२॥

'वे विदर्भराज उस सूने निर्जन वनमें तपस्या करनेके लिये क्यों गये? यह मैं यथार्थरूपसे सुनना चाहता हूँ'॥३॥

श्रीरामका कौतूहलयुक्त वचन सुनकर वे परम तेजस्वी महर्षि पुनः इस प्रकार कहने लगे—॥४॥

'श्रीराम! पूर्वकालके सत्ययुगकी बात है, दण्डधारी राजा मनु इस भूतलपर शासन करते थे। उनके एक श्रेष्ठ पुत्र हुआ, जिसका नाम इक्ष्वाकु था। राजकुमार इक्ष्वाकु अपने कुलको आनन्दित करनेवाले थे॥५॥

'अपने उन ज्येष्ठ एवं दुर्जय पुत्रको भूमण्डलके राज्यपर स्थापित करके मनुने उनसे कहा—'बेटा! तुम भूतलपर राजवंशोंकी सृष्टि करो'॥६॥

'रघुनन्दन! पुत्र इक्ष्वाकुने पिताके सामने वैसा ही करनेकी प्रतिज्ञा की। इससे मनु बहुत संतुष्ट हुए और अपने पुत्रसे बोले—॥७॥

"परम उदार पुत्र! मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ। तुम राजवंशकी सृष्टि करोगे, इसमें संशय नहीं है। तुम दण्डके द्वारा दुष्टोंका दमन करते हुए प्रजाकी रक्षा करो, परंतु बिना अपराधके ही किसीको दण्ड न देना॥८॥

"अपराधी मनुष्योंपर जो दण्डका प्रयोग किया जाता है, वह विधिपूर्वक दिया हुआ दण्ड राजाको स्वर्गलोकमें पहुँचा देता है॥९॥

"इसलिये महाबाहु पुत्र! तुम दण्डका समुचित प्रयोग करनेके लिये प्रयत्नशील रहना। ऐसा करनेसे तुम्हें संसारमें परम धर्मकी प्राप्ति होगी"॥१०॥

इस प्रकार पुत्रको बहुत-सा संदेश दे मनु समाधि लगाकर बड़े हर्षके साथ स्वर्गको—सनातन ब्रह्मलोकको चले गये॥११॥

'उनके ब्रह्मलोकनिवासी हो जानेपर अमित तेजस्वी राजा इक्ष्वाकु इस चिन्तामें पड़े कि मैं किस प्रकार पुत्रोंको उत्पन्न करूँ?॥१२॥

'तब यज्ञ, दान और तपस्यारूप विविध कर्मोंद्वारा धर्मात्मा मनुपुत्रने सौ पुत्र उत्पन्न किये, जो देवकुमारोंके समान तेजस्वी थे॥१३॥

'तात रघुनन्दन! उनमें जो सबसे छोटा पुत्र था, वह मूढ़ और विद्याविहीन था, इसलिये अपने बड़े भाइयोंकी सेवा नहीं करता था॥१४॥

'इसके शरीरपर अवश्य दण्डपात होगा, ऐसा सोचकर पिताने उस मन्दबुद्धि पुत्रका नाम दण्ड रख दिया॥१५॥

'श्रीराम! शत्रुदमन नरेश! उस पुत्रके योग्य दूसरा कोई भयंकर देश न देखकर राजाने उसे विन्ध्य और शैवल पर्वतके बीचका राज्य दे दिया॥१६॥

'श्रीराम! पर्वतके उस रमणीय तटप्रान्तमें दण्ड राजा हुआ। उसने अपने रहनेके लिये एक बहुत ही अनुपम और उत्तम नगर बसाया॥१७॥

'प्रभो! उसने उस नगरका नाम रखा मधुमन्त और उत्तम व्रतका पालन करनेवाले शुक्राचार्यको अपना पुरोहित बनाया॥१८॥

'इस प्रकार स्वर्गमें देवराजकी भाँति भूतलपर राजा दण्डने पुरोहितके साथ रहकर हृष्ट-पुष्ट मनुष्योंसे भरे हुए उस राज्यका पालन आरम्भ किया॥१९॥

'उस समय वह महामनस्वी महाराजकुमार तथा महान् राजा दण्ड शुक्राचार्यके साथ रहकर अपने राज्यका उसी तरह पालन करने लगा जैसे स्वर्गमें देवराज इन्द्र देवगुरु बृहस्पतिके साथ रहकर अपने राज्यका पालन करते हैं'॥२०॥ 

 

इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके उत्तरकाण्डमें उनासीवाँ सर्ग पूरा हुआ॥७९॥