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*श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण*

 

*किष्किन्धाकाण्ड*

 

*सत्रहवाँ सर्ग*

 

*वालीका श्रीरामचन्द्रजीको फटकारना*

 

युद्धमें कठोरता दिखानेवाला वाली श्रीरामके बाणसे घायल हो कटे वृक्षकी भाँति सहसा पृथ्वीपर गिर पड़ा॥१॥ 

उसका सारा शरीर पृथ्वीपर पड़ा हुआ था। तपाये हुए सुवर्णके आभूषण अब भी उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। वह देवराज इन्द्रके बन्धनरहित ध्वजकी भाँति पृथ्वीपर गिर पड़ा था॥२॥

वानरों और भालुओंके यूथपति वालीके धराशायी हो जानेपर यह पृथ्वी चन्द्ररहित आकाशकी भाँति शोभाहीन हो गयी॥३॥

पृथ्वीपर पड़े होनेपर भी महामना वालीके शरीरको शोभा, प्राण, तेज और पराक्रम नहीं छोड़ सके थे॥४॥

इन्द्रकी दी हुई रत्नजटित श्रेष्ठ सुवर्णमाला उस वानरराजके प्राण, तेज और शोभाको धारण किये हुए थी॥५॥

उस सुवर्णमालासे विभूषित हुआ वानरयूथपति वीर वाली संध्याकी लालीसे रँगे हुए प्रान्त भागवाले मेघखण्डके समान शोभा पा रहा था॥६॥

पृथ्वीपर गिरे होनेपर भी वालीकी वह सुवर्णमाला, उसका शरीर तथा मर्मस्थलको विदीर्ण करनेवाला वह बाण—ये तीनों पृथक्-पृथक् तीन भागोंमें विभक्त की हुई अङ्गलक्ष्मीके समान शोभा पा रहे थे॥७॥

वीरवर श्रीरामके धनुषसे चलाये गये उस अस्त्रने वालीके लिये स्वर्गका मार्ग प्रकाशित कर दिया और उसे परमपदको पहुँचा दिया॥८॥

इस प्रकार युद्धस्थलमें गिरा हुआ इन्द्रपुत्र वाली ज्वालारहित अग्निके समान, पुण्योंका क्षय होनेपर पुण्यलोकसे इस पृथ्वीपर गिरे हुए राजा ययातिके समान तथा महाप्रलयके समय कालद्वारा पृथ्वीपर गिराये गये सूर्यके समान जान पड़ता था। उसके गलेमें सोनेकी माला शोभा दे रही थी। वह महेन्द्रके समान दुर्जय और भगवान् विष्णुके समान दुस्सह था। उसकी छाती चौड़ी, भुजाएँ बड़ी-बड़ी, मुख दीप्तिमान् और नेत्र कपिलवर्णके थे॥९-११॥

लक्ष्मणको साथ लिये श्रीरामने वालीको इस अवस्थामें देखा और वे उसके समीप गये। इस प्रकार ज्वालारहित अग्निकी भाँति वहाँ गिरा हुआ वह वीर धीरे-धीरे देख रहा था। महापराक्रमी दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण उस वीरका विशेष सम्मान करते हुए उसके पास गये॥१२-१३॥

उन श्रीराम तथा महाबली लक्ष्मणको देखकर वाली धर्म और विनयसे युक्त कठोर वाणीमें बोला—॥१४॥

अब उसमें तेज और प्राण स्वल्पमात्रामें ही रह गये थे। वह बाणसे घायल होकर पृथ्वीपर पड़ा था और उसकी चेष्टा धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही थी। उसने युद्धमें गर्वयुक्त पराक्रम प्रकट करनेवाले गर्वीले श्रीरामसे कटोर वाणीमें इस प्रकार कहना आरम्भ किया—॥१५॥

रघुनन्दन। आप राजा दशरथके सुविख्यात पुत्र हैं। आपका दर्शन सबको प्रिय है। मैं आपसे युद्ध करने नहीं आया था। मैं तो दूसरेके साथ युद्धमे उलझा हुआ था। उस दशामें आपने मेरा वध करके यहाँ कौन-सा गुण प्राप्त किया है—किस महान् यशका उपार्जन किया है? क्योंकि मैं युद्धके लिये दूसरेपर रोष प्रकट कर रहा था, किंतु आपके कारण बीचमें ही मृत्युको प्राप्त हुआ॥१६॥

इस भूतलपर सब प्राणी आपके यशका वर्णन करते हुए कहते हैं—श्रीरामचन्द्रजी कुलीन, सत्त्वगुणसम्पन्न, तेजस्वी, उत्तम व्रतका आचरण करनेवाले, करुणाका अनुभव करनेवाले, प्रजाके हितैषी, दयालु, महान् उत्साही, समयोचित कार्य एवं सदाचारके ज्ञाता और दृढ़प्रतिज्ञ हैं॥१७-१८॥

'राजन्! इन्द्रियनिग्रह, मनका संयम, क्षमा, धर्म, धैर्य, सत्य, पराक्रम तथा अपराधियोंको दण्ड देना—ये राजाके गुण हैं॥१९॥

'मैं आपमें इन सभी सद्‌गुणोंका विश्वास करके आपके उत्तम कुलको यादकर ताराके मना करनेपर भी सुग्रीवके साथ लड़ने आ गया॥२०॥

जबतक मैंने आपको नहीं देखा था, तबतक मेरे मनमें यही विचार उठता था कि दूसरेके साथ रोषपूर्वक जुझते हुए मुझको आप असावधान अवस्थामें अपने बाणसे बेधना उचित नहीं समझेंगे॥२१॥

"परंतु आज मुझे मालूम हुआ कि आपकी बुद्धि मारी गयी है। आप धर्मध्वजी हैं। दिखावेके लिये धर्मका चोला पहने हुए हैं। वास्तवमें अधर्मी हैं। आपका आचार-व्यवहार पापपूर्ण है। आप घास-फूससे ढके हुए कूपके समान धोखा देनेवाले हैं॥२२॥

'आपने साधु पुरुषोंका-सा वेश धारण कर रखा है; परंतु हैं पापी। राखसे ढकी हुई आगके समान आपका असली रूप साधु-वेषमें छिप गया है। मैं नहीं जानता था कि आपने लोगोंको छलनेके लिये ही धर्मकी आड़ ली है॥२३॥

'जब मैं आपके राज्य या नगरमें कोई उपद्रव नहीं कर रहा था तथा आपका भी तिरस्कार नहीं करता था, तब आपने मुझ निरपराधको क्यों मारा?॥२४॥

'मैं सदा फल-मूलका भोजन करनेवाला और वनमें ही विचरनेवाला वानर हूँ। मैं यहाँ आपसे युद्ध नहीं करता था, दूसरेके साथ मेरी लड़ाई हो रही थी। फिर बिना अपराधके आपने मुझे क्यों मारा?॥२५॥

'राजन्! आप एक सम्माननीय नरेशके पुत्र हैं। विश्वासके योग्य हैं और देखनेमें भी प्रिय हैं। आपमें धर्मका साधनभूत चिह्न (जटा) वल्कल धारण आदि भी प्रत्यक्ष दिखायी देता है॥२६॥

'क्षत्रियकुलमें उत्पन्न शास्त्रका ज्ञाता, संशयरहित तथा धार्मिक वेश-भूषासे आच्छन्न होकर भी कौन मनुष्य ऐसा क्रूरतापूर्ण कर्म कर सकता है॥२७॥

'महाराज! रघुके कुलमें आपका प्रादुर्भाव हुआ है। आप धर्मात्माके रूपमें प्रसिद्ध हैं तो भी इतने अभव्य (क्रूर) निकले! यदि यही आपका असली रूप है तो फिर किसलिये ऊपरसे भव्य (विनीत एवं दयालु) साधु पुरुषका-सा रूप धारण करके चारों ओर दौड़ते-फिरते हैं?॥२८॥

'राजन्! साम, दान, क्षमा, धर्म, सत्य, धृति, पराक्रम और अपराधियोंको दण्ड देना—ये भूपालोंके गुण हैं॥२९॥

'नरेश्वर राम! हम फल-मूल खानेवाले वनचारी मृग हैं। यही हमारी प्रकृति है; किंतु आप तो पुरुष (मनुष्य) है (अतः हमारे और आपमें वैरका कोई कारण नहीं है)॥३०॥

'पृथ्वी, सोना और चाँदी—इन्हीं वस्तुओंके लिये राजाओंमें परस्पर युद्ध होते हैं। ये ही तीन कलहके मूल कारण हैं। परंतु यहाँ वे भी नहीं हैं। इस दिशामें इस वनमें या हमारे फलोंमें आपका क्या लोभ हो सकता है॥३१॥

'नीति और विनय, दण्ड और अनुग्रह—ये राजधर्म हैं, किंतु इनके उपयोगके भिन्न-भिन्न अवसर हैं (इनका अविवेकपूर्वक उपयोग करना उचित नहीं है)। राजाओंको स्वेच्छाचारी नहीं होना चाहिये॥३२॥

'परंतु आप तो कामके गुलाम, क्रोधी और मर्यादामें स्थित न रहनेवाले—चञ्चल हैं। नय-विनय आदि जो राजाओंके धर्म हैं, उनके अवसरका विचार किये बिना ही किसीका कहीं भी प्रयोग कर देते हैं। जहाँ कहीं भी बाण चलाते-फिरते हैं॥३३॥

'आपका धर्मके विषयमें आदर नहीं है और न अर्थसाधनमें ही आपकी बुद्धि स्थिर है। नरेश्वर! आप स्वेच्छाचारी हैं। इसलिये आपकी इन्द्रियाँ आपको कहीं भी खींच ले जाती हैं॥३४॥

'काकुत्स्थ! मैं सर्वथा निरपराध था तो भी यहाँ मुझे बाणसे मारनेका घृणित कर्म करके सत्पुरुषोंके बीचमें आप क्या कहेंगे॥३५॥

'राजाका वध करनेवाला, ब्रह्म-हत्यारा, गोघाती, चोर, प्राणियोंकी हिंसामें तत्पर रहनेवाला, नास्तिक और परिवेत्ता (बड़े भाईके अविवाहित रहते अपना विवाह करनेवाला छोटा भाई) ये सब-के-सब नरकगामी होते हैं॥३६॥

'चुगली खानेवाला, लोभी, मित्र-हत्यारा तथा गुरुपत्नीगामी—ये पापात्माओंके लोकमें जाते हैं—इसमें संशय नहीं है॥३७॥

'हम वानरोंका चमड़ा भी तो सत्पुरुषोंके धारण करनेयोग्य नहीं होता। हमारे रोम और हड्डियाँ भी वर्जित हैं (छूनेयोग्य नहीं हैं। आप जैसे धर्माचारी पुरुषोंके लिये मांस तो सदा ही अभक्ष्य है; फिर किस लोभसे आपने मुझ वानरको अपने बाणोंका शिकार बनाया है?)॥३८॥

'रघुनन्दन! त्रैवर्णिकोंमें जिनकी किसी कारणसे मांसाहार (जैसे निन्दनीय कर्म) में प्रवृत्ति हो गयी है, उनके लिये भी पाँच नखवाले जीवोंमेंसे पाँच ही भक्षणके योग्य बताये गये हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं—गैंडा, साही, गोह, खरहा और पाँचवाँ कछुआ॥३९॥

'श्रीराम! मनीषी पुरुष मेरे (वानरके) चमड़े और हड्डीका स्पर्श नहीं करते हैं। वानरके मांस भी सभीके लिये अभक्ष्य होते हैं। इस तरह जिसका सब कुछ निषिद्ध है, ऐसा पाँच नखवाला मैं आज आपके हाथसे मारा गया हूँ॥४०॥

'मेरी स्त्री तारा सर्वज्ञ है। उसने मुझे सत्य और हितकी बात बतायी थी। किंतु मोहवश उसका उल्लङ्घन करके मैं कालके अधीन हो गया॥४१॥

'काकुत्स्थ! जैसे सुशीला युवती पापात्मा पतिसे सुरक्षित नहीं हो पाती, उसी प्रकार आप-जैसे स्वामीको पाकर यह वसुधा सनाथ नहीं हो सकती॥४२॥

'आप शठ (छिपे रहकर दूसरोंका अप्रिय करनेवाले), अपकारी, क्षुद्र और झूठे ही शान्तचित्त बने रहनेवाले हैं। महात्मा राजा दशरथने आप-जैसे पापीको कैसे उत्पन्न किया॥४३॥

'हाय! जिसने सदाचारका रस्सा तोड़ डाला है, सत्पुरुषोंके धर्म एवं मर्यादाका उल्लङ्घन किया है तथा जिसने धर्मरूपी अङ्कुशकी भी अवहेलना कर दी है, उस रामरूपी हाथीके द्वारा आज मैं मारा गया॥४४॥

'ऐसा अशुभ, अनुचित और सत्पुरुषोंद्वारा निन्दित कर्म करके आप श्रेष्ठ पुरुषोंसे मिलनेपर उनके सामने क्या कहेंगे॥४५॥

'श्रीराम! हम उदासीन प्राणियोंपर आपने जो यह पराक्रम प्रकट किया है, ऐसा बल-पराक्रम आप अपना अपकार करनेवालोंपर प्रकट कर रहे हों, ऐसा मुझे नहीं दिखायी देता॥४६॥

'राजकुमार! यदि आप युद्धस्थलमें मेरी दृष्टिके सामने आकर मेरे साथ युद्ध करते तो आज मेरे द्वारा मारे जाकर सूर्यपुत्र यम देवताका दर्शन करते होते॥४७॥

'जैसे किसी सोये हुए पुरुषको साँप आकर डँस ले और वह मर जाय उसी प्रकार रणभूमिमें मुझ दुर्जय वीरको आपने छिपे रहकर मारा है तथा ऐसा करके आप पापके भागी हुए हैं॥४८॥

'जिस उद्देश्यको लेकर सुग्रीवका प्रिय करनेकी कामनासे आपने मेरा वध किया है, उसी उद्देश्यकी सिद्धिके लिये यदि आपने पहले मुझसे ही कहा होता तो मैं मिथिलेशकुमारी जानकीको एक ही दिनमें ढूँढ़कर आपके पास ला देता॥४९॥

'आपकी पत्नीका अपहरण करनेवाले दुरात्मा राक्षस रावणको मैं युद्धमें मारे बिना ही उसके गलेमें रस्सी बाँधकर पकड़ लाता और उसे आपके हवाले कर देता॥५०॥

'जैसे मधुकैटभद्वारा अपहृत हुई श्वेताश्वतरी श्रुतिका भगवान् हयग्रीवने उद्धार किया था, उसी प्रकार मैं आपके आदेशसे मिथिलेशकुमारी सीताको यदि वे समुद्रके जलमें या पातालमें रखी गयी होती तो भी वहाँसे ला देता॥५१॥

'मेरे स्वर्गवासी हो जानेपर सुग्रीव जो यह राज्य प्राप्त करेंगे, वह तो उचित ही है। अनुचित इतना ही हुआ है कि आपने मुझे रणभूमिमें अधर्मपूर्वक मारा है॥५२॥

'यह जगत् कभी-न-कभी कालके अधीन होता ही है। इसका ऐसा स्वभाव ही है। अतः भले ही मेरी मृत्यु हो जाय, इसके लिये मुझे खेद नहीं है। परंतु मेरे इस तरह मारे जानेका यदि आपने उचित उत्तर ढूँढ़ निकाला हो तो उसे अच्छी तरह सोच-विचारकर कहिये'॥५३॥

ऐसा कहकर महामनस्वी वानरराजकुमार वाली सूर्यके समान तेजस्वी श्रीरामचन्द्रजीकी ओर देखकर चुप हो गया। उसका मुँह सूख गया था और बाणके आघातसे उसको बड़ी पीड़ा हो रही थी॥५४॥

 

*इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके किष्किन्धाकाण्डमें सत्रहवाँ सर्ग पूरा हुआ॥१७॥*