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*श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण*
*बालकाण्ड*
*छब्बीसवाँ सर्ग*
*श्रीरामद्वारा ताटकाका वध*
मुनिके ये उत्साहभरे वचन सुनकर दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रतका पालन करनेवाले राजकुमार श्रीरामने हाथ जोड़कर उत्तर दिया—॥१॥
'भगवन्! अयोध्यामें मेरे पिता महामना महाराज दशरथने अन्य गुरुजनोंके बीच मुझे यह उपदेश दिया था कि 'बेटा! तुम पिताके कहनेसे पिताके वचनोंका गौरव रखनेके लिये कुशिकनन्दन विश्वामित्रकी आज्ञाका निःशङ्क होकर पालन करना। कभी भी उनकी बातकी अवहेलना न करना'॥२-३॥
'अतः मैं पिताजीके उस उपदेशको सुनकर आप ब्रह्मवादी महात्माकी आज्ञासे ताटकावधसम्बन्धी कार्यको उत्तम मानकर करूँगा—इसमें संदेह नहीं है॥४॥
'गौ, ब्राह्मण तथा समूचे देशका हित करनेके लिये मैं आप-जैसे अनुपम प्रभावशाली महात्माके आदेशका पालन करनेको सब प्रकारसे तैयार हूँ'॥५॥
ऐसा कहकर शत्रुदमन श्रीरामने धनुषके मध्यभागमें मुट्ठी बाँधकर उसे जोरसे पकड़ा और उसकी प्रत्यञ्चापर तीव्र टङ्कार दी। उसकी आवाजसे सम्पूर्ण दिशाएँ गूँज उठीं॥६॥
उस शब्दसे ताटकावनमें रहनेवाले समस्त प्राणी थर्रा उठे। ताटका भी उस टङ्कार-घोषसे पहले तो किंकर्तव्यविमूढ़ हो उठी; परंतु फिर कुछ सोचकर अत्यन्त क्रोधमें भर गयी॥७॥
उस शब्दको सुनकर वह राक्षसी क्रोधसे अचेत सी हो गयी थी। उसे सुनते ही वह जहाँसे आवाज आयी थी, उसी दिशाकी ओर रोषपूर्वक दौड़ी॥८॥
उसके शरीरकी ऊँचाई बहुत अधिक थी। उसकी मुखाकृति विकृत दिखायी देती थी। क्रोधमें भरी हुई उस विकराल राक्षसीकी ओर दृष्टिपात करके श्रीरामने लक्ष्मणसे कहा—॥९॥
'लक्ष्मण! देखो तो सही, इस यक्षिणीका शरीर कैसा दारुण एवं भयङ्कर है। इसके दर्शनमात्रसे भीरु पुरुषोंके हृदय विदीर्ण हो सकते हैं॥१०॥
'मायाबलसे सम्पन्न होनेके कारण यह अत्यन्त दुर्जय हो रही है। देखो, मैं अभी इसके कान और नाक काटकर इसे पीछे लौटनेको विवश किये देता हूँ॥११॥
'यह अपने स्त्रीस्वभावके कारण रक्षित है; अतः मुझे इसे मारनेमें उत्साह नहीं है। मेरा विचार यह है कि मैं इसके बल-पराक्रम तथा गमनशक्तिको नष्ट कर दूँ (अर्थात् इसके हाथ-पैर काट डालूँ)'॥१२॥
श्रीराम इस प्रकार कह ही रहे थे कि क्रोधसे अचेत हुई ताटका वहाँ आ पहुँची और एक बाँह उठाकर गर्जना करती हुई उन्हींकी ओर झपटी॥१३॥
यह देख ब्रह्मर्षि विश्वामित्रने अपने हुंकारके द्वारा उसे डाँटकर कहा—'रघुकुलके इन दोनों राजकुमारोंका कल्याण हो। इनकी विजय हो'॥१४॥
तब ताटकाने उन दोनों रघुवंशी वीरोंपर भयङ्कर धूल उड़ाना आरम्भ किया। वहाँ धूलका विशाल बादल-सा छा गया। उसके द्वारा उसने श्रीराम और लक्ष्मणको दो घड़ीतक मोहमें डाल दिया॥१५॥
तत्पश्चात् मायाका आश्रय लेकर वह उन दोनों भाइयोंपर पत्थरोंकी बड़ी भारी वर्षा करने लगी। यह देख रघुनाथजी उसपर कुपित हो उठे॥१६॥
रघुवीरने अपनी बाणवर्षाके द्वारा उसकी बड़ी भारी शिलावृष्टिको रोककर अपनी ओर आती हुई उस निशाचरीके दोनों हाथ तीखे सायकोंसे काट डाले॥१७॥
दोनों भुजाएँ कट जानेसे थकी हुई ताटका उनके निकट खड़ी होकर जोर-जोरसे गर्जना करने लगी। यह देख सुमित्राकुमार लक्ष्मणने क्रोधमें भरकर उसके नाक-कान काट लिये॥१८॥
परंतु वह तो इच्छानुसार रूप धारण करनेवाली यक्षिणी थी। अतः अनेक प्रकारके रूप बनाकर अपनी मायासे श्रीराम और लक्ष्मणको मोहमें डालती हुई अदृश्य हो गयी॥१९॥
अब वह पत्थरोंकी भयङ्कर वर्षा करती हुई आकाशमें विचरने लगी। श्रीराम और लक्ष्मणपर चारों ओरसे प्रस्तरोंकी वृष्टि होती देख तेजस्वी गाधिनन्दन विश्वामित्रने इस प्रकार कहा—'श्रीराम! इसके ऊपर तुम्हारा दया करना व्यर्थ है। यह बड़ी पापिनी और दुराचारिणी है। सदा यज्ञोंमें विघ्न डाला करती है। यह अपनी मायासे पुनः प्रबल हो उठे, इसके पहले ही इसे मार डालो। अभी संध्याकाल आना चाहता है, इसके पहले ही यह कार्य हो जाना चाहिये; क्योंकि संध्याके समय राक्षस दुर्जय हो जाते हैं'॥२०-२२½॥
विश्वामित्रजीके ऐसा कहनेपर श्रीरामने शब्दवेधी बाण चलानेकी शक्तिका परिचय देते हुए बाण मारकर प्रस्तरोंकी वर्षा करनेवाली उस यक्षिणीको सब ओरसे अवरुद्ध कर दिया॥२३½॥
उनके बाण-समूहसे घिर जानेपर मायाबलसे युक्त वह यक्षिणी जोर-जोरसे गर्जना करती हुई श्रीराम और लक्ष्मणके ऊपर टूट पड़ी। उसे चलाये हुए इन्द्रके वज्रकी भाँति वेगसे आती देख श्रीरामने एक बाण मारकर उसकी छाती चीर डाली। तब ताटका पृथ्वीपर गिरी और मर गयी॥२४-२५½॥
उस भयङ्कर राक्षसीको मारी गयी देख देवराज इन्द्र तथा देवताओंने श्रीरामको साधुवाद देते हुए उनकी सराहना की॥२६½॥
उस समय सहस्रलोचन इन्द्र तथा समस्त देवताओंने अत्यन्त प्रसन्न एवं हर्षोत्फुल्ल होकर विश्वामित्रजीसे कहा—॥२७½॥
'मुने! कुशिकनन्दन! आपका कल्याण हो। आपने इस कार्यसे इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवताओंको संतुष्ट किया है। अब रघुकुलतिलक श्रीरामपर आप अपना स्नेह प्रकट कीजिये॥२८½॥
'ब्रह्मन्! प्रजापति कृशाश्वके अस्त्र-रूपधारी पुत्रोंको, जो सत्यपराक्रमी तथा तपोबलसे सम्पन्न हैं, श्रीरामको समर्पित कीजिये॥२९½॥
'विप्रवर! ये आपके अस्त्रदानके सुयोग्य पात्र हैं तथा आपके अनुसरण (सेवा-शुश्रूषा) में तत्पर रहते हैं। राजकुमार श्रीरामके द्वारा देवताओंका महान् कार्य सम्पन्न होनेवाला है'॥३०½॥
ऐसा कहकर सभी देवता विश्वामित्रजीकी प्रशंसा करते हुए प्रसन्नतापूर्वक आकाशमार्गसे चले गये। तत्पश्चात् संध्या हो गयी॥३१½॥
तदनन्तर ताटकावधसे संतुष्ट हुए मुनिवर विश्वामित्रने श्रीरामचन्द्रजीका मस्तक सूँघकर उनसे यह बात कही—॥३२½॥
'शुभदर्शन राम! आजकी रातमें हमलोग यहीं निवास करें। कल सबेरे अपने आश्रमपर चलेंगे'॥३३½॥
विश्वामित्रजीकी यह बात सुनकर दशरथकुमार श्रीराम बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने ताटकावनमें रहकर वह रात्रि बड़े सुखसे व्यतीत की॥३४½॥
उसी दिन वह वन शापमुक्त होकर रमणीय शोभासे सम्पन्न हो गया और चैत्ररथवनकी भाँति अपनी मनोहर छटा दिखाने लगा॥३५॥
यक्षकन्या ताटकाका वध करके श्रीरामचन्द्रजी देवताओं तथा सिद्धसमूहोंकी प्रशंसाके पात्र बन गये। उन्होंने प्रातः कालकी प्रतीक्षा करते हुए विश्वामित्रजीके साथ ताटकावनमें निवास किया॥३६॥
*इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें छब्बीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥२६॥*