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*श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण*
*युद्धकाण्ड*
*उन्नासीवाँ सर्ग*
*श्रीरामचन्द्रजीके द्वारा मकराक्षका वध*
प्रधान-प्रधान वानरोंने जब देखा कि मकराक्ष नगरसे निकला आ रहा है, तब वे सब-के-सब सहसा उछलकर युद्धके लिये खड़े हो गये॥१॥
फिर तो वानरोंका निशाचरोंके साथ बड़ा भारी युद्ध छिड़ गया, जो देव-दानव-संग्रामके समान रोंगटे खड़े कर देनेवाला था॥२॥
वानर और निशाचर वृक्ष, शूल, गदा और परिघोंकी मारसे उस समय एक-दूसरेको कुचलने लगे॥३॥
निशाचरगण शक्ति, खड्ग, गदा, भाला, तोमर, पट्टिश, भिन्दिपाल, बाणप्रहार, पाश, मुद्गर, दण्ड तथा अन्य प्रकारके शस्त्रोंके आघातसे सब ओर वानरवीरोंका संहार करने लगे॥४-५॥
खरपुत्र मकराक्षने अपने बाणसमूहोंसे वानरोंको अत्यन्त घायल कर दिया। उनके मनमें बड़ी घबराहट हुई और वे सब-के-सब भयसे पीड़ित हो इधर-उधर भागने लगे॥६॥
उन सब वानरोंको भागते देख विजयोल्लाससे सुशोभित होनेवाले वे समस्त राक्षस दर्पसे भरकर सिंहके समान गर्जना करने लगे॥७॥
वे वानर जब सब ओर भागने-पराने लगे, तब श्रीरामचन्द्रजीने बाणोंकी वर्षा करके राक्षसोंको आगे बढ़नेसे रोका॥८॥
राक्षसोंको रोका गया देख निशाचर मकराक्ष क्रोधकी आगसे जल उठा और इस प्रकार बोला—॥९॥
'राम! ठहरो, मेरे साथ तुम्हारा द्वन्द्वयुद्ध होगा। आज अपने धनुषसे छूटे हुए पैने बाणोंद्वारा तुम्हारे प्राण हर लूँगा॥१०॥
'उन दिनों दण्डकारण्यके भीतर जो तुमने मेरे पिताका वध किया था, तभीसे लेकर अबतक तुम राक्षस-वधके ही कर्ममें लगे हुए थे। इस रूपमें तुम्हारा स्मरण करके मेरा रोष बढ़ता जा रहा है॥११॥
'दुरात्मा राघव! उस समय विशाल दण्डकारण्यमें जो तुम मुझे दिखायी नहीं दिये, इससे मेरे अङ्ग अत्यन्त रोषसे जलते रहते थे॥१२॥
'किंतु राम! सौभाग्यकी बात है, जो तुम आज यहाँ मेरी आँखोंके सामने पड़ गये। जैसे भूखसे पीड़ित हुए सिंहको दूसरे वन-जन्तुओंकी अभिलाषा होती है उसी तरह मैं भी तुम्हें पानेकी इच्छा करता था॥१३॥
'आज मेरे बाणोंके वेगसे यमराजके राज्यमें पहुँचकर तुम्हें उन्हीं वीर निशाचरोंके साथ निवास करना पड़ेगा, जो तुम्हारे हाथसे मारे गये हैं॥१४॥
'राम! यहाँ बहुत कहनेसे क्या लाभ? मेरी बात सुनो। सब लोग इस समराङ्गणमें खड़े होकर केवल तुमको और मुझको देखें—तुम्हारे और मेरे युद्धका अवलोकन करें॥१५॥
'राम! तुम्हें रणभूमिमें अस्त्रोंसे, गदासे अथवा दोनों भुजाओंसे—जिससे भी अभ्यास हो, उसीके द्वारा आज तुम्हारे साथ मेरा युद्ध हो'॥१६॥
मकराक्षकी यह बात सुनकर दशरथनन्दन भगवान् श्रीराम जोर-जोरसे हँसने लगे और उत्तरोत्तर बातें बनानेवाले उस राक्षससे बोले—॥१७॥
'निशाचर! क्यों व्यर्थ डींग हाँकता है। तेरे मुँहसे बहुत-सी ऐसी बातें निकल रही हैं, जो वीर पुरुषोंके योग्य नहीं हैं। संग्राममें युद्ध किये बिना कोरी बकवासके बलसे विजय नहीं प्राप्त हो सकती॥१८॥
'पापी राक्षस! यह ठीक है कि दण्डकारण्यमें चौदह हजार राक्षसोंके साथ तेरे पिता खरका, त्रिशिराका और दूषणका भी मैंने वध किया था। उस समय तीखी चोंच और अंकुशके समान पंजेवाले बहुत-से गीधों, गीदड़ों तथा कौओंको भी उनके मांससे अच्छी तरह तृप्त किया था और अब आज वे तेरे मांससे भरपेट भोजन पायेंगे'॥१९-२०॥
श्रीरघुनाथजीके ऐसा कहनेपर महाबली मकराक्षने रणभूमिमें उनके ऊपर बाण-समूहोंकी वर्षा आरम्भ कर दी॥२१॥
परंतु श्रीरामने स्वयं भी बाणोंकी बौछार करके उस राक्षसके बाण टुकड़े-टुकड़े कर डाले। वे कटे हुए सुनहरी पाँखवाले सहस्रों बाण पृथ्वीपर गिर पड़े॥२२॥
दशरथनन्दन भगवान् श्रीराम और राक्षस खरके पुत्र मकराक्ष—इन दोनोंमें एक-दूसरेके निकट आकर बलपूर्वक युद्ध होने लगा॥२३॥
उन दोनोंकी प्रत्यञ्चा और हथेलीकी रगड़से धनुषके द्वारा जो टंकार-शब्द प्रकट होता था, वह उस समराङ्गणमें परस्पर मिलकर उसी तरह सुनायी देता था, जैसे आकाशमें दो मेघोंके गर्जनेकी आवाज हो रही हो॥२४॥
देवता, दानव, गन्धर्व, किन्नर और बड़े-बड़े नाग—ये सब-के-सब उस अद्भुत युद्धको देखनेके लिये अन्तरिक्षमें आकर खड़े हो गये॥२५॥
दोनोंके शरीर बाणोंसे बिंध गये थे; फिर भी उनका बल दुगुना बढ़ता जाता था। वे दोनों संग्रामभूमिमें एक-दूसरेके अस्त्रोंको काटते हुए लड़ रहे थे॥२६ ॥
श्रीरामचन्द्रजीके छोड़े हुए बाण-समूहोंको वह राक्षस रणभूमिमें काट डालता था और राक्षसके चलाये हुए सायकोंको श्रीरामचन्द्रजी अपने बाणोंद्वारा टूक-टूक कर डालते थे॥२७॥
सम्पूर्ण दिशा और विदिशाएँ बाण-समूहोंसे आच्छादित हो गयी थीं तथा सारी पृथ्वी ढक गयी थी। चारों ओर कुछ भी दिखायी नहीं देता था॥२८॥
तदनन्तर महाबाहु श्रीरामचन्द्रजीने क्रोधमें भरकर उस राक्षसके धनुषको युद्धभूमिमें काट दिया और आठ नाराचोंद्वारा उसके सारथिको भी पीट दिया॥२९॥
फिर अनेक बाणोंसे रथको छिन्न-भिन्न करके श्रीरामने घोड़ोंको भी मार गिराया। रथहीन हो जानेपर निशाचर मकराक्ष भूमिपर खड़ा हो गया॥३०॥
पृथ्वीपर खड़े हुए उस राक्षसने शूल हाथमें लिया, जो प्रलयकालकी अग्निके समान दीप्तिमान् तथा समस्त प्राणियोंको भयभीत करनेवाला था॥३१॥
वह परम दुर्लभ और महान् शूल भगवान् शंकरका दिया हुआ था, जो बहुत ही भयंकर था। वह दूसरे संहारास्त्रकी भाँति आकाशमें प्रज्वलित हो उठा॥३२॥
उसे देखकर सम्पूर्ण देवता भयसे पीड़ित हो सब दिशाओंमें भाग गये। उस निशाचरने प्रज्वलित होते हुए उस महान् शूलको घुमाकर महात्मा श्रीरघुनाथजीके ऊपर क्रोधपूर्वक चलाया॥३३½॥
खरपुत्र मकराक्षके हाथसे छूटे हुए उस प्रज्वलित शूलको अपनी ओर आते देख श्रीरामचन्द्रजीने चार बाण मारकर आकाशमें ही उसको काट डाला॥३४½॥
दिव्य सुवर्णसे विभूषित वह शूल श्रीरामके बाणोंसे खण्डित हो अनेक टुकड़ोंमें बँट गया और बड़ी भारी उल्काके समान भूतलपर बिखर गया॥३५॥
अनायास ही महान् कर्म करनेवाले श्रीरामके द्वारा उस शूलको खण्डित हुआ देख आकाशमें स्थित हुए सभी प्राणी उन्हें साधुवाद देने लगे॥३६॥
उस शूलके टुकड़े-टुकड़े हुए देख निशाचर मकराक्षने घूसा तानकर श्रीरामचन्द्रजीसे कहा—'अरे! खड़ा रह, खड़ा रह'॥३७॥
उसे आक्रमण करते देख श्रीरामचन्द्रजीने हँसकर अपने धनुषपर आग्नेयास्त्रका संधान किया॥३८॥
और उस अस्त्रके द्वारा उन्होंने रणभूमिमें तत्काल उस राक्षसपर प्रहार किया। बाणके आघातसे राक्षसका हृदय विदीर्ण हो गया; अतः वह गिरा और मर गया॥३९॥
मकराक्षका धराशायी होना देख वे सब राक्षस श्रीरामचन्द्रजीके बाणोंके भयसे व्याकुल हो लङ्कामें ही भाग गये॥४०॥
देवताओंने देखा, जैसे वज्रका मारा हुआ पर्वत बिखर जाता है, उसी प्रकार खरका पुत्र निशाचर मकराक्ष दशरथकुमार श्रीरामचन्द्रजीके बाणोंके वेगसे मार डाला गया। इससे उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई॥४१॥
*इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके युद्धकाण्डमें उन्नासीवाँ सर्ग पूरा हुआ॥७९॥*