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*श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण*

 

*युद्धकाण्ड*

 

*पैंसठवाँ सर्ग*

 

*कुम्भकर्णकी रणयात्रा*

 

महोदरके ऐसा कहनेपर कुम्भकर्णने उसे डाँटा और अपने भाई राक्षसशिरोमणि रावणसे कहा—॥१॥

'राजन्! आज मैं उस दुरात्मा रामका वध करके तुम्हारे घोर भयको दूर कर दूँगा। तुम वैरभावसे मुक्त होकर सुखी हो जाओ॥२॥

'शूरवीर जलहीन बादलके समान व्यर्थ गर्जना नहीं किया करते। तुम देखना, अब युद्धस्थलमें मैं अपने पराक्रमके द्वारा ही गर्जना करूँगा ॥३॥

'शूरवीरोंको अपने ही मुँहसे अपनी तारीफ करना सहन नहीं होता। वे वाणीके द्वारा प्रदर्शन न करके चुपचाप दुष्कर पराक्रम प्रकट करते हैं॥४॥

'महोदर! जो भीरु, मूर्ख और झूठे ही अपनेको पण्डित माननेवाले होंगे, उन्हीं राजाओंको तुम्हारे द्वारा कही जानेवाली ये चिकनी-चुपड़ी बातें सदा अच्छी लगेंगी॥५॥

'युद्धमें कायरता दिखानेवाले तुम-जैसे चापलूसोंने ही सदा राजाकी हाँ-में-हाँ मिलाकर सारा काम चौपट किया है॥६॥

'अब तो लङ्कामें केवल राजा शेष रह गये हैं। खजाना खाली हो गया और सेना मार डाली गयी। इस राजाको पाकर तुमलोगोंने मित्रके रूपमें शत्रुका काम किया है॥७॥

'यह देखो, अब मैं शत्रुको जीतनेके लिये उद्यत होकर समरभूमिमें जा रहा हूँ। तुमलोगोंने अपनी खोटी नीतिके कारण जो विषम परिस्थिति उत्पन्न कर दी है, उसका आज महासमरमें समीकरण करना है—इस विषम संकटको सर्वदाके लिये टाल देना है'॥८॥

बुद्धिमान् कुम्भकर्णने जब ऐसी वीरोचित बात कही, तब राक्षसराज रावणने हँसते हुए उत्तर दिया—॥९॥

'युद्धविशारद तात! यह महोदर श्रीरामसे बहुत डर गया है, इसमें संशय नहीं है। इसीलिये यह युद्धको पसंद नहीं करता है॥१०॥

'कुम्भकर्ण! मेरे आत्मीयजनोंमें सौहार्द और बलकी दृष्टिसे कोई भी तुम्हारी समानता करनेवाला नहीं है। तुम शत्रुओंका वध करने और विजय पानेके लिये युद्धभूमिमें जाओ॥११॥

'शत्रुदमन वीर! तुम सो रहे थे। तुम्हारे द्वारा शत्रुओंका नाश करानेके लिये ही मैंने तुम्हें जगाया है। राक्षसोंकी युद्धयात्राके लिये यह सबसे उत्तम समय है॥१२॥

'तुम पाशधारी यमराजकी भाँति शूल लेकर जाओ और सूर्यके समान तेजस्वी उन दोनों राजकुमारों तथा वानरोंको मारकर खा जाओ॥१३॥

'वानर तुम्हारा रूप देखते ही भाग जायँगे तथा राम और लक्ष्मणके हृदय भी विदीर्ण हो जायँगे'॥१४॥ 

महाबली कुम्भकर्णसे ऐसा कहकर महातेजस्वी राक्षसराज रावणने अपना पुनः नया जन्म हुआ-सा माना॥१५॥

राजा रावण कुम्भकर्णके बलको अच्छी तरह जानता था, उसके पराक्रमसे भी पूर्ण परिचित था; इसलिये वह निर्मल चन्द्रमाके समान परम आह्लादसे भर गया॥१६॥

रावणके ऐसा कहनेपर महाबली कुम्भकर्ण बहुत प्रसन्न हुआ। वह राजा रावणकी बात सुनकर उस समय युद्धके लिये उद्यत हो गया और लङ्कापुरीसे बाहर निकला॥१७॥

शत्रुओंका संहार करनेवाले उस वीरने बड़े वेगसे तीखा शूल हाथमें लिया, जो सब-का-सब काले लोहेका बना हुआ, चमकीला और तपाये हुए सुवर्णसे विभूषित था॥१८॥

उसकी कान्ति इन्द्रके अशनिके समान थी। वह वज्रके समान भारी था तथा देवताओं, दानवों, गन्धर्वों, यक्षों और नागोंका संहार करनेवाला था॥१९॥

उसमें लाल फूलोंकी बहुत बड़ी माला लटक रही थी और उससे आगकी चिनगारियाँ झड़ रही थीं। शत्रुओंके रक्तसे रँगे हुए उस विशाल शूलको हाथमें लेकर महातेजस्वी कुम्भकर्ण रावणसे बोला—'मैं अकेला ही युद्धके लिये जाऊँगा। अपनी यह सारी सेना यहीं रहे॥२०-२१॥

'आज मैं भूखा हूँ और मेरा क्रोध भी बढ़ा हुआ है। इसलिये समस्त वानरोंको भक्षण कर जाऊँगा।' कुम्भकर्णकी यह बात सुनकर रावण बोला—॥२२॥

'कुम्भकर्ण! तुम हाथोंमें शूल और मुद्गर धारण करनेवाले सैनिकोंसे घिरे रहकर युद्धके लिये यात्रा करो, क्योंकि महामनस्वी वानर बड़े वीर और अत्यन्त उद्योगी हैं। वे तुम्हें अकेला या असावधान देख दाँतोंसे काट-काटकर नष्ट कर डालेंगे; इसलिये सेनासे घिरकर सब ओरसे सुरक्षित हो यहाँसे जाओ। उस दशामें तुम्हें परास्त करना शत्रुओंके लिये बहुत कठिन होगा। तुम राक्षसोंका अहित करनेवाले समस्त शत्रुदलका संहार करो'॥२३-२४॥

यों कहकर महातेजस्वी रावण अपने आसनसे उठा और एक सोनेकी माला, जिसके बीच-बीचमें मणियाँ पिरोयी हुई थीं, लेकर उसने कुम्भकर्णके गलेमें पहना दी॥२५॥

बाजूबंद, अँगूठियाँ, अच्छे-अच्छे आभूषण और चन्द्रमाके समान चमकीला हार—इन सबको उसने महाकाय कुम्भकर्णके अङ्गोंमें पहनाया॥२६॥

उतना ही नहीं, रावणने उसके विभिन्न अङ्गोंमें दिव्य सुगन्धित फूलोंकी मालाएँ भी बँधवा दीं और दोनों कानोंमें कुण्डल पहना दिये॥२७॥

सोनेके अङ्गद, केयूर और पदक आदि आभूषणोंसे भूषित तथा घड़ेके समान विशाल कानोंवाला कुम्भकर्ण घीकी उत्तम आहुति पाकर प्रज्वलित हुई अग्निके समान प्रकाशित हो उठा॥२८॥

उसके कटिप्रदेशमें काले रंगकी एक विशाल करधनी थी, जिससे वह अमृतकी उत्पत्तिके लिये किये गये समुद्रमन्थनके समय नागराज वासुकिसे लिपटे हुए मन्दराचलके समान शोभा पाता था॥२९॥

तदनन्तर कुम्भकर्णकी छातीमें एक सोनेका कवच बाँधा गया, जो भारी-से-भारी आघात सहन करनेमें समर्थ, अस्त्र-शस्त्रोंसे अभेद्य तथा अपनी प्रभासे विद्युत्के समान देदीप्यमान था। उसे धारण करके कुम्भकर्ण संध्याकालके लाल बादलोंसे संयुक्त गिरिराज अस्ताचलके समान सुशोभित हो रहा था॥३०॥

सारे अङ्गोंमें सभी आवश्यक आभूषण धारण करके हाथोंमें शूल लिये वह राक्षस कुम्भकर्ण जब आगे बढ़ा, उस समय त्रिलोकीको नापनेके लिये तीन डग बढ़ानेको उत्साहित हुए भगवान् नारायण (वामन)-के समान जान पड़ा॥३१॥

भाईको हृदयसे लगाकर उसकी परिक्रमा करके उस महाबली वीरने उसे मस्तक झुकाकर प्रणाम किया। तत्पश्चात् वह युद्धके लिये चला॥३२॥

उस समय रावणने उत्तम आशीर्वाद देकर श्रेष्ठ आयुधोंसे सुसज्जित सेनाओंके साथ उसे युद्धके लिये विदा किया। यात्राके समय उसने शङ्ख और दुन्दुभि आदि बाजे भी बजवाये॥३३॥

हाथी, घोड़े और मेघोंकी गर्जनाके समान घर्घराहट पैदा करनेवाले रथोंपर सवार हो अनेकानेक महामनस्वी रथी वीर रथियोंमें श्रेष्ठ कुम्भकर्णके साथ गये॥३४॥

कितने ही राक्षस साँप, ऊँट, गधे, सिंह, हाथी, मृग और पक्षियोंपर सवार हो-होकर उस भयंकर महाबली कुम्भकर्णके पीछे-पीछे गये॥३५॥

उस समय उसके ऊपर फूलोंकी वर्षा हो रही थी। सिरपर श्वेत छत्र तना हुआ था और उसने हाथमें तीखा त्रिशूल ले रखा था। इस प्रकार देवताओं और दानवोंका शत्रु तथा रक्तकी गन्धसे मतवाला कुम्भकर्ण, जो स्वाभाविक मदसे भी उन्मत्त हो रहा था, युद्धके लिये निकला॥३६॥

उसके साथ बहुत-से पैदल राक्षस भी गये, जो बड़े बलवान्, जोर-जोरसे गर्जना करनेवाले, भीषण नेत्रधारी और भयानक रूपवाले थे। उन सबके हाथोंमें नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्र थे॥३७॥

उनके नेत्र रोषसे लाल हो रहे थे। वे सभी कई व्याम ऊँचे और काले कोयलेके ढेरकी भाँति काले थे। उन्होंने अपने हाथोंमें शूल, तलवार, तीखी धारवाले फरसे, भिन्दिपाल, परिघ, गदा, मूसल, बड़े-बड़े ताड़के वृक्षोंके तने और जिन्हें कोई काट न सके, ऐसी गुलेलें ले रखी थीं॥३८-३९॥

तदनन्तर महातेजस्वी महाबली कुम्भकर्णने बड़ा उग्र रूप धारण किया, जिसे देखनेपर भय मालूम होता था। ऐसा रूप धारण करके वह युद्धके लिये चल पड़ा॥४०॥

उस समय वह छः सौ धनुषके बराबर विस्तृत और सौ धनुषके बराबर ऊँचा हो गया। उसकी आँखें दो गाड़ीके पहियोंके समान जान पड़ती थीं। वह विशाल पर्वतके समान भयंकर दिखायी देता था॥४१॥

पहले तो उसने राक्षस-सेनाकी व्यूह-रचना की। फिर दावानलसे दग्ध हुए पर्वतके समान महाकाय कुम्भकर्ण अपना विशाल मुख फैलाकर अट्टहास करता हुआ इस प्रकार बोला—॥४२॥

'राक्षसो! जैसे आग पतंगोंको जलाती है, उसी प्रकार मैं भी कुपित होकर आज प्रधान-प्रधान वानरोंके एक-एक झुंडको भस्म कर डालूँगा॥४३॥

'यों तो वनमें विचरनेवाले बेचारे वानर स्वेच्छासे मेरा कोई अपराध नहीं कर रहे हैं; अतः वे वधके योग्य नहीं हैं। वानरोंकी जाति तो हम-जैसे लोगोंके नगरोद्यानका आभूषण है॥४४॥

'वास्तवमें लङ्कापुरीपर घेरा डालनेके प्रधान कारण हैं—लक्ष्मणसहित राम। अतः सबसे पहले मैं उन्हींको युद्धमें मारूँगा। उनके मारे जानेपर सारी वानर-सेना स्वतः मरी हुई-सी हो जायगी'॥४५॥

कुम्भकर्णके ऐसा कहनेपर राक्षसोंने समुद्रको कम्पित-सा करते हुए बड़ी भयानक गर्जना की॥४६॥ 

बुद्धिमान् राक्षस कुम्भकर्णके रणभूमिकी ओर पैर बढ़ाते ही चारों ओर घोर अपशकुन होने लगे॥४७॥

गदहोंके समान भूरे रंगवाले बादल घिर आये। साथ ही उल्कापात हुआ और बिजलियाँ गिरीं। समुद्र और वनोंसहित सारी पृथ्वी काँपने लगी॥४८॥

भयानक गीदड़ियाँ मुँहसे आग उगलती हुई अमङ्गलसूचक बोली बोलने लगीं। पक्षी मण्डल बाँधकर उसकी दक्षिणावर्त परिक्रमा करने लगे॥४९॥

रास्तेमें चलते समय कुम्भकर्णके शूलपर गीध आ बैठा। उसकी बायीं आँख फड़कने लगी और बायीं भुजा कम्पित होने लगी॥५०॥

फिर उसी समय जलती हुई उल्का भयंकर आवाजके साथ गिरी। सूर्यकी प्रभा क्षीण हो गयी और हवा इतने वेगसे चल रही थी कि सुखद नहीं जान पड़ती थी॥५१॥

इस प्रकार रोंगटे खड़े कर देनेवाले बहुत-से बड़े-बड़े उत्पात प्रकट हुए; किंतु उनकी कुछ भी परवा न करके कालकी शक्तिसे प्रेरित हुआ कुम्भकर्ण युद्धके लिये निकल पड़ा॥५२॥

वह पर्वतके समान ऊँचा था। उसने लङ्काकी चहारदीवारीको दोनों पैरोंसे लाँघकर देखा कि वानरोंकी अद्भुत सेना मेघोंकी घनीभूत घटाके समान छा रही है॥५३॥

उस पर्वताकार श्रेष्ठ राक्षसको देखते ही समस्त वानर हवासे उड़ाये गये बादलोंके समान तत्काल सम्पूर्ण दिशाओंमें भाग चले॥५४॥

छिन्न-भिन्न हुए बादलोंके समूहकी भाँति उस अतिशय प्रचण्ड वानर-वाहिनीको सम्पूर्ण दिशाओंमें भागती देख मेघोंके समान काला कुम्भकर्ण बड़े हर्षके साथ सजल जलधरके सदृश गम्भीर स्वरमें बारंबार गर्जना करने लगा॥५५॥

आकाशमें जैसी मेघोंकी गर्जना होती है, उसीके समान उस राक्षसका घोर सिंहनाद सुनकर बहुत-से वानर जड़से कटे हुए सालवृक्षोंके समान पृथ्वीपर गिर पड़े॥५६॥

महाकाय कुम्भकर्णने शूलकी ही भाँति अपने एक हाथमें विशाल परिघ भी ले रखा था। वह वानर-समूहोंको अत्यन्त घोर भय प्रदान करता हुआ प्रलय-कालमें संहारके साधनभूत कालदण्डोंसे युक्त भगवान् कालरुद्रके समान शत्रुओंका विनाश करनेके लिये पुरीसे बाहर निकला॥५७॥ 

 

*इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके युद्धकाण्डमें पैंसठवाँ सर्ग पूरा हुआ॥६५॥*