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*श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण*

 

*युद्धकाण्ड*

 

*सतहत्तरवाँ सर्ग*

 

*हनुमान्‌के द्वारा निकुम्भका वध*

 

सुग्रीवके द्वारा अपने भाई कुम्भको मारा गया देख निकुम्भने वानरराजकी ओर इस प्रकार देखा, मानो उन्हें अपने क्रोधसे दग्ध कर देगा॥१॥

उस धीयतर-वीरने महेन्द्र पर्वतके शिखर-जैसा एक सुन्दर एवं विशाल परिघ हाथमें लिया, जो फूलोंकी लड़ियोंसे अलंकृत था और जिसमें पाँच-पाँच अंगुलके चौड़े लोहेके पत्र जड़े गये थे॥२॥

उस परिघमें सोनेके पत्र भी जड़े थे और उसे हीरे तथा मूँगोंसे भी विभूषित किया गया था। वह परिघ यमदण्डके समान भयंकर तथा राक्षसोंके भयका नाश करनेवाला था॥३॥

उस इन्द्रध्वजके समान तेजस्वी परिघको घुमाता हुआ वह महातेजस्वी भयानक पराक्रमी राक्षस निकुम्भ मुँह फैलाकर जोर-जोरसे गर्जना करने लगा॥४॥

उसके वक्षःस्थलमें सोनेका पदक था। भुजाओंमें बाजूबंद शोभा देते थे। कानोंमें विचित्र कुण्डल झलमला रहे थे और गलेमें विचित्र माला जगमगा रही थी। इन सब आभूषणोंसे और उस परिघसे भी निकुम्भकी वैसी ही शोभा हो रही थी, जैसे विद्युत् और गर्जनासे युक्त मेघ इन्द्र-धनुषसे सुशोभित होता है॥५-६॥

उस महाकाय राक्षसके परिघके अग्रभागसे टकराकर प्रवह-आवह आदि सात महावायुओंकी संधि टूट-फूट गयी तथा वह भारी गड़गड़ाहटके साथ धूमरहित अग्निकी भाँति प्रज्वलित हो उठा॥७॥

निकुम्भके परिघ घुमानेसे विटपावती नगरी (अलकापुरी), गन्धर्वोंके उत्तम भवन, तारे, नक्षत्र, चन्द्रमा तथा बड़े-बड़े ग्रहोंके साथ समस्त आकाशमण्डल घूमता-सा प्रतीत होता था॥८॥

परिघ और आभूषण ही जिसकी प्रभा थे, क्रोध ही जिसके लिये ईंधनका काम कर रहा था, वह निकुम्भनामक अग्नि प्रलयकालकी आगके समान उठी और अत्यन्त दुर्जय हो गयी॥९॥

उस समय राक्षस और वानर भयके मारे हिल-डुल भी न सके। केवल महाबली हनुमान् अपनी छाती खोलकर उस राक्षसके सामने खड़े हो गये॥१०॥

निकुम्भकी भुजाएँ परिघके समान थीं। उस महाबली राक्षसने उस सूर्यतुल्य तेजस्वी परिघको बलवान् वीर हनुमान्जीकी छातीपर दे मारा॥११॥

हनुमान्‌जीकी छाती बड़ी सुदृढ़ और विशाल थी। उससे टकराते ही उस परिघके सहसा सैकड़ों टुकड़े होकर बिखर गये, मानो आकाशमें सौ-सौ उल्काएँ एक साथ गिरी हों॥१२॥

महाकपि हनुमान्जी परिघसे आहत होनेपर भी उस प्रहारसे विचलित नहीं हुए, जैसे भूकम्प होनेपर भी पर्वत नहीं गिरता है॥१३॥

अत्यन्त महान् बलशाली वानरशिरोमणि हनुमान्‌जीने इस प्रकार परिघकी मार खाकर बलपूर्वक अपनी मुट्ठी बाँधी॥१४॥

वे महान् तेजस्वी, पराक्रमी, वेगवान् और वायुके समान बल-विक्रमसे सम्पन्न थे। उन्होंने मुक्का तानकर बड़े वेगसे निकुम्भकी छातीपर मारा॥१५॥

उस मुक्केकी चोटसे वहाँ उसका कवच फट गया और छातीसे रक्त बहने लगा; मानो मेघमें बिजली चमक उठी हो॥१६॥

उस प्रहारसे निकुम्भ विचलित हो उठा; फिर थोड़ी ही देरमें सँभलकर उसने महाबली हनुमान्‌जीको पकड़ लिया॥१७॥

उस समय युद्धस्थलमें निकुम्भके द्वारा महाबली हनुमान्जीका अपहरण होता देख लङ्कानिवासी राक्षस भयानक स्वरमें विजयसूचक गर्जना करने लगे॥१८॥

उस राक्षसके द्वारा इस प्रकार अपहृत होनेपर भी पवनपुत्र हनुमान्जीने अपने वज्रतुल्य मुक्केसे उसपर प्रहार किया॥१९॥

फिर वे अपनेको उसके चंगुलसे छुड़ाकर पृथ्वीपर खड़े हो गये। तदनन्तर वायुपुत्र हनुमान्ने तत्काल ही निकुम्भको पृथ्वीपर दे मारा॥२०॥

इसके बाद उन वेगशाली वीरने बड़े प्रयाससे निकुम्भको पृथ्वीपर गिराया और खूब रगड़ा। फिर वेगसे उछलकर वे उसकी छातीपर चढ़ बैठे और दोनों हाथोंसे गला मरोड़कर उन्होंने उसके मस्तकको उखाड़ लिया। गला मरोड़ते समय वह राक्षस भयंकर आर्तनाद कर रहा था॥२१-२२॥

रणभूमिमें वायुपुत्र हनुमान्जीके द्वारा गर्जना करनेवाले निकुम्भके मारे जानेपर एक-दूसरेपर अत्यन्त कुपित हुए श्रीराम और मकराक्षमें बड़ा भयंकर युद्ध हुआ॥२३॥

निकुम्भके प्राणत्याग करनेपर सभी वानर बड़े हर्षके साथ गर्जने लगे। सम्पूर्ण दिशाएँ कोलाहलसे भर गयीं। पृथ्वी चलती-सी जान पड़ी, आकाश मानो फट पड़ा हो, ऐसा प्रतीत होने लगा तथा राक्षसोंकी सेनामें भय समा गया॥२४॥

 

*इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके युद्धकाण्डमें सतहत्तरवाँ सर्ग पूरा हुआ॥७७॥*