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*श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण*
*युद्धकाण्ड*
*सत्ताईसवाँ सर्ग*
*वानरसेनाके प्रधान यूथपतियोंका परिचय*
(सारणने कहा—) 'राक्षसराज! आप वानर सेनाका निरीक्षण कर रहे हैं, इसलिये मैं आपको उन यूथपतियोंका परिचय दे रहा हूँ, जो रघुनाथजीके लिये पराक्रम करनेको उद्यत हैं और अपने प्राणोंका मोह नहीं रखते हैं॥१॥
'इधर यह हर नामका वानर है। भयंकर कर्म करनेवाले इस वानरकी लंबी पूँछपर लाल, पीले, भूरे और सफेद रंगके साढ़े तीन-तीन हाथ बड़े-बड़े चिकने रोएँ हैं। ये इधर-उधर फैले हुए रोम उठे होनेके कारण सूर्यकी किरणोंके समान चमक रहे हैं तथा चलते समय भूमिपर लोटते रहते हैं। इसके पीछे वानरराजके किंकररूप सैकड़ों और हजारों यूथपति उपस्थित हो वृक्ष उठाये सहसा लङ्कापर आक्रमण करनेके लिये चले आ रहे हैं॥२-४½॥
'उधर नील महामेघ और अञ्जनके समान काले रंगके जिन रीछोंको आप खड़े देख रहे हैं, वे युद्धमें सच्चा पराक्रम प्रकट करनेवाले हैं। समुद्रके दूसरे तटपर स्थित हुए बालुका-कणोंके समान इनकी गणना नहीं की जा सकती, इसीलिये पृथक्-पृथक् नाम लेकर इनके विषयमें कुछ बताना सम्भव नहीं है। ये सब पर्वतों, विभिन्न देशों और नदियोंके तटोंपर रहते हैं। राजन्! ये अत्यन्त भयंकर स्वभाववाले रीछ आपपर चढ़े आ रहे हैं। इनके बीचमें इनका राजा खड़ा है, जिसकी आँखें बड़ी भयानक और जो दूसरोंके देखनेमें भी बड़ा भयंकर जान पड़ता है। वह काले मेघोंसे घिरे हुए इन्द्रकी भाँति चारों ओरसे इन रीछोंद्वारा घिरा हुआ है। इसका नाम धूम्र है। यह समस्त रीछोंका राजा और यूथपति है। यह रीछराज धूम्र पर्वतश्रेष्ठ ऋक्षवान्पर रहता और नर्मदाका जल पीता है॥५-९॥
'इस धूम्रके छोटे भाई जाम्बवान् हैं, जो महान् यूथपतियोंके भी यूथपति हैं। देखिये ये कैसे पर्वताकार दिखायी देते हैं। ये रूपमें तो अपने भाईके समान ही हैं; किंतु पराक्रममें उससे भी बढ़कर हैं। इनका स्वभाव शान्त है। ये बड़े भाई तथा गुरुजनोंकी आज्ञाके अधीन रहते हैं और उनकी सेवा करते हैं। युद्धके अवसरोंपर इनका रोष और अमर्ष बहुत बढ़ जाता है॥१०-११॥
'इन बुद्धिमान् जाम्बवान्ने देवासुर संग्राममें इन्द्रकी बहुत बड़ी सहायता की थी और उनसे इन्हें बहुत-से वर भी प्राप्त हुए थे॥१२॥
'इनके बहुत-से सैनिक विचरते हैं, जिनके बल पराक्रमकी कोई सीमा नहीं है। इन सबके शरीर बड़ी-बड़ी रोमावलियोंसे भरे हुए हैं। ये राक्षसों और पिशाचोंके समान क्रूर हैं और बड़े-बड़े पर्वत शिखरोंपर चढ़कर वहाँसे महान् मेघोंके समान विशाल एवं विस्तृत शिलाखण्ड शत्रुओंपर छोड़ते हैं। इन्हें मृत्युसे कभी भय नहीं होता॥१३-१४॥
'जो खेल-खेलमें ही कभी उछलता और कभी खड़ा होता है, वहाँ खड़े हुए सब वानर जिसकी ओर आश्चर्यपूर्वक देखते हैं, जो यूथपतियोंका भी सरदार है और रोषसे भरा दिखायी देता है, यह दम्भ नामसे प्रसिद्ध यूथपति है। इसके पास बहुत बड़ी सेना है। राजन्! यह वानरराज दम्भ अपनी सेनाद्वारा ही सहस्राक्ष इन्द्रकी उपासना करता है—उनकी सहायताके लिये सेनाएँ भेजता रहता है॥१५-१६॥
'जो चलते समय एक योजन दूर खड़े हुए पर्वतको भी अपने पार्श्वभागसे छू लेता है और एक योजन ऊँचेकी वस्तुतक अपने शरीरसे ही पहुँचकर उसे ग्रहण कर लेता है, चौपायोंमें जिससे बड़ा रूप कहीं नहीं है, वह वानर संनादन नामसे विख्यात है। उसे वानरोंका पितामह कहा जाता है। उस बुद्धिमान् वानरने किसी समय इन्द्रको अपने साथ युद्धका अवसर दिया था, किंतु वह उनसे परास्त नहीं हुआ था, वही यह यूथपतियोंका भी सरदार है॥१७-१९॥
'युद्धके लिये जाते समय जिसका पराक्रम इन्द्रके समान दृष्टिगोचर होता है तथा देवताओं और असुरोंके युद्धमें देवताओंकी सहायताके लिये जिसे अग्निदेवने एक गन्धर्व-कन्याके गर्भसे उत्पन्न किया था, वही यह क्रथन नामक यूथपति है। राक्षसराज! बहुत-से किन्नर जिनका सेवन करते हैं, उन बड़े-बड़े पर्वतोंका जो राजा है और आपके भाई कुबेरको सदा विहारका सुख प्रदान करता है तथा जिसपर उगे हुए जामुनके वृक्षके नीचे राजाधिराज कुबेर बैठा करते हैं, उसी पर्वतपर यह तेजस्वी बलवान् वानरशिरोमणि श्रीमान् क्रथन भी रमण करता है। यह युद्धमें कभी अपनी प्रशंसा नहीं करता और दस अरब वानरोंसे घिरा रहता है। यह भी अपनी सेनाके द्वारा लङ्काको रौंद डालनेका हौसला रखता है॥२०-२४॥
'जो हाथियों और वानरोंके पुराने वैरका स्मरण करके गज-यूथपतियोंको भयभीत करता हुआ गङ्गाके किनारे विचरा करता है, जंगली पेड़ोंको तोड़-उखाड़कर उनके द्वारा हाथियोंको आगे बढ़नेसे रोक देता है, पर्वतोंकी कन्दरामें सोता और जोर-जोरसे गर्जना करता है, वानरयूथोंका स्वामी तथा संचालक है, वानरोंकी सेनामें जिसे प्रमुख वीर माना जाता है, जो गङ्गातटपर विद्यमान उशीरबीज नामक पर्वत तथा गिरिश्रेष्ठ मन्दराचलका आश्रय लेकर रहता एवं रमण करता है और जो वानरोंमें उसी प्रकार श्रेष्ठ स्थान रखता है जैसे स्वर्गके देवताओंमें साक्षात् इन्द्र, वही यह दुर्जय वीर प्रमाथी नामक यूथपति है। इसके साथ बल और पराक्रमपर गर्व रखकर गर्जना करनेवाले दस करोड़ वानर रहते हैं, जो अपने बाहुबलसे सुशोभित होते हैं। यह प्रमाथी इन सभी महात्मा वानरोंका नेता है। वायुके वेगसे उठे हुए मेघकी भाँति जिस वानरकी ओर आप बारंबार देख रहे हैं, जिससे सम्बन्ध रखनेवाले वेगशाली वानरोंकी सेना भी रोषसे भरी दिखायी देती है तथा जिसकी सेनाद्वारा उड़ायी गयी धूमिल रंगकी बहुत बड़ी धूलिराशि वायुसे सब ओर फैलकर जिसके निकट गिर रही है, वही यह प्रमाथी नामक वीर है॥२५-३१½॥
'ये काले मुँहवाले लंगूरजातिके वानर हैं। इनमें महान् बल है। इन भयंकर वानरोंकी संख्या एक करोड़ है। महाराज! जिसने सेतु बाँधनेमें सहायता की है, उस लंगूरजातिके गवाक्ष नामक यूथपतिको चारों ओरसे घेरकर ये वानर चल रहे हैं और लङ्काको बलपूर्वक कुचल डालनेके लिये जोर-जोरसे गर्जना करते हैं॥३२-३३½॥
'जिस पर्वतपर सभी ऋतुओंमें फल देनेवाले वृक्ष भ्रमरोंसे सेवित दिखायी देते हैं, सूर्यदेव अपने ही समान वर्णवाले जिस पर्वतकी प्रतिदिन परिक्रमा करते हैं, जिसकी कान्तिसे वहाँके मृग और पक्षी सदा सुनहरे रंगके प्रतीत होते हैं, महात्मा महर्षिगण जिसके शिखरका कभी त्याग नहीं करते हैं, जहाँके सभी वृक्ष सम्पूर्ण मनोवाञ्छित वस्तुओंको फलके रूपमें प्रदान करते हैं और उनमें सदा फल लगे रहते हैं, जिस श्रेष्ठ शैलपर बहुमूल्य मधु उपलब्ध होता है, उसी रमणीय सुवर्णमय पर्वत महामेरुपर ये प्रमुख वानरोंमें प्रधान यूथपति केसरी रमण करते हैं॥३४-३७½॥
'साठ हजार जो रमणीय सुवर्णमय पर्वत हैं, उनके बीचमें एक श्रेष्ठ पर्वत है, जिसका नाम है सावर्णिमेरु। निष्पाप निशाचरपते! जैसे राक्षसोंमें आप श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार पर्वतोंमें वह सावर्णिमेरु उत्तम है॥३८½॥
'वहाँ जो पर्वतका अन्तिम शिखर है, उसपर कपिल (भूरे), श्वेत, लाल मुँहवाले और मधुके समान पिङ्गल वर्णवाले वानर निवास करते हैं, जिनके दाँत बड़े तीखे हैं और नख ही उनके आयुध हैं। वे सब सिंहके समान चार दाँतोंवाले, व्याघ्रके समान दुर्जय, अग्निके समान तेजस्वी और प्रज्वलित मुखवाले विषधर सर्पके समान क्रोधी होते हैं। उनकी पूँछ बहुत बड़ी ऊपरको उठी हुई और सुन्दर होती है। वे मतवाले हाथीके समान पराक्रमी, महान् पर्वतके समान ऊँचे और सुदृढ़ शरीरवाले तथा महान् मेघके समान गम्भीर गर्जना करनेवाले हैं। उनके नेत्र गोल-गोल एवं पिङ्गल वर्णके होते हैं। उनके चलनेपर बड़ा भयानक शब्द होता है। वे सभी वानर यहाँ आकर इस तरह खड़े हैं, मानो आपकी लङ्काको देखते ही मसल डालेंगे॥३९-४२½॥
'देखिये उनके बीचमें यह उनका पराक्रमी सेनापति खड़ा है। यह बड़ा बलवान् है और विजयकी प्राप्तिके लिये सदा सूर्यदेवकी उपासना करता है। राजन्! यह वीर इस भूमण्डलमें शतबलिके नामसे विख्यात है॥४३-४४॥
'बलवान्, पराक्रमी तथा शूरवीर यह शतबलि भी अपने ही पुरुषार्थके भरोसे युद्धके लिये खड़ा है और अपनी सेनाद्वारा लङ्कापुरीको मसल डालना चाहता है। यह वानरवीर श्रीरामचन्द्रजीका प्रिय करनेके लिये अपने प्राणोंपर भी दया नहीं करता है॥४५½॥
'गज, गवाक्ष, गवय, नल और नील—इनमेंसे एक-एक सेनापति दस-दस करोड़ योद्धाओंसे घिरा हुआ है॥४६½॥
'इसी तरह विन्ध्यपर्वतपर निवास करनेवाले और भी बहुत-से शीघ्र पराक्रमी श्रेष्ठ वानर हैं, जो अधिक होनेके कारण गिने नहीं जा सकते॥४७॥
'महाराज! ये सभी वानर बड़े प्रभावशाली है। सभीके शरीर बड़े-बड़े पर्वतोंके समान विशाल हैं और सभी क्षणभरमें भूमण्डलके समस्त पर्वतोंको चूर-चूर करके सब ओर बिखेर देनेकी शक्ति रखते हैं'॥४८॥
*इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके युद्धकाण्डमें सत्ताईसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥२७॥*