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*श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण*
*सुन्दरकाण्ड*
*बीसवाँ सर्ग*
*रावणका सीताजीको प्रलोभन*
राक्षसियोंसे घिरी हुई दीन और आनन्दशून्य तपस्विनी सीताको सम्बोधित करके रावण अभिप्राययुक्त मधुर वचनोंद्वारा अपने मनका भाव प्रकट करने लगा—॥१॥
'हाथीकी सूँड़के समान सुन्दर जाँघोंवाली सीते! मुझे देखते ही तुम अपने स्तन और उदरको इस प्रकार छिपाने लगी हो, मानो डरके मारे अपनेको अदृश्य कर देना चाहती हो॥२॥
'किंतु विशाललोचने! मैं तो तुम्हें चाहता हूँ—तुमसे प्रेम करता हूँ। समस्त संसारका मन मोहनेवाली सर्वांगसुन्दरी प्रिये! तुम भी मुझे विशेष आदर दो—मेरी प्रार्थना स्वीकार करो॥३॥
'यहाँ तुम्हारे लिये कोई भय नहीं है। इस स्थानमें न तो मनुष्य आ सकते हैं, न इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले दूसरे राक्षस ही, केवल मैं आ सकता हूँ। परन्तु सीते! मुझसे जो तुम्हें भय हो रहा है, वह तो दूर हो ही जाना चाहिये॥४॥
'भीरु! (तुम यह न समझो कि मैंने कोई अधर्म किया है) परायी स्त्रियोंके पास जाना अथवा बलात् उन्हें हर लाना यह राक्षसोंका सदा ही अपना धर्म रहा है—इसमें संदेह नहीं है॥५॥
'मिथिलेशनन्दिनि! ऐसी अवस्थामें भी जबतक तुम मुझे न चाहोगी, तबतक मैं तुम्हारा स्पर्श नहीं करूँगा। भले ही कामदेव मेरे शरीरपर इच्छानुसार अत्याचार करे॥६॥
'देवि! इस विषयमें तुम्हें भय नहीं करना चाहिये। प्रिये ! मुझपर विश्वास करो और यथार्थरूपसे प्रेमदान दो। इस तरह शोकसे व्याकुल न हो जाओ॥७॥
'एक वेणी धारण करना, नीचे पृथ्वीपर सोना, चिन्तामग्न रहना, मैले वस्त्र पहनना और बिना अवसरके उपवास करना—ये सब बातें तुम्हारे योग्य नहीं हैं॥८॥
'मिथिलेशकुमारी! मुझे पाकर तुम विचित्र पुष्पमाला, चन्दन, अगुरु, नाना प्रकारके वस्त्र, दिव्य आभूषण, बहुमूल्य पेय, शय्या, आसन, नाच, गान और वाद्यका सुख भोगो॥९-१०॥
'तुम स्त्रियोंमें रत्न हो। इस तरह मलिन वेषमें न रहो। अपने अंगोंमें आभूषण धारण करो। सुन्दरि! मुझे पाकर भी तुम भूषण आदिसे असम्मानित कैसे रहोग!॥११॥
'यह तुम्हारा नवोदित सुन्दर यौवन बीता जा रहा है। जो बीत जाता है, वह नदियोंके प्रवाहकी भाँति फिर लौटकर नहीं आता॥१२॥
'शुभदर्शने! मैं तो ऐसा समझता हूँ कि रूपकी रचना करनेवाला लोकस्रष्टा विधाता तुम्हें बनाकर फिर उस कार्यसे विरत हो गया; क्योंकि तुम्हारे रूपकी समता करनेवाली दूसरी कोई स्त्री नहीं है॥१३॥
'विदेहनन्दिनि! रूप और यौवनसे सुशोभित होनेवाली तुमको पाकर कौन ऐसा पुरुष है, जो धैर्यसे विचलित न होगा। भले ही वह साक्षात् ब्रह्मा क्यों न हो॥१४॥
'चन्द्रमाके समान मुखवाली सुमध्यमे! मैं तुम्हारे जिस-जिस अंगको देखता हूँ, उसी-उसीमें मेरे नेत्र उलझ जाते हैं॥१५॥
'मिथिलेशकुमारी! तुम मेरी भार्या बन जाओ। पातिव्रत्यके इस मोहको छोड़ो। मेरे यहाँ बहुत-सी सुन्दरी रानियाँ हैं। तुम उन सबमें श्रेष्ठ पटरानी बनो॥१६॥
'भीरु! मैं अनेक लोकोंसे उन्हें मथकर जो-जो रत्न लाया हूँ, वे सब तुम्हारे ही होंगे और यह राज्य भी मैं तुम्हींको समर्पित कर दूँगा॥१७॥
'विलासिनि! तुम्हारी प्रसन्नताके लिये मैं विभिन्न नगरोंकी मालाओंसे अलंकृत इस सारी पृथ्वीको जीतकर राजा जनकके हाथमें सौंप दूँगा॥१८॥
'इस संसारमें मैं किसी दूसरे ऐसे पुरुषको नहीं देखता, जो मेरा सामना कर सके। तुम युद्धमें मेरा वह महान् पराक्रम देखना, जिसके सामने कोई प्रतिद्वन्द्वी टिक नहीं पाता॥१९॥
'मैंने युद्धस्थलमें जिनकी ध्वजाएँ तोड़ डाली थीं, वे देवता और असुर मेरे सामने ठहरनेमें असमर्थ होनेके कारण कई बार पीठ दिखा चुके हैं॥२०॥
'तुम मुझे स्वीकार करो। आज तुम्हारा उत्तम शृंगार किया जाय और तुम्हारे अंगोंमें चमकीले आभूषण पहनाये जायँ॥२१॥
'सुमुखि! आज मैं शृंगारसे सुसज्जित हुए तुम्हारे सुन्दर रूपको देख रहा हूँ। तुम उदारतावश मुझपर कृपा करके शृंगारसे सम्पन्न हो जाओ॥२२॥
'भीरु! फिर इच्छानुसार भाँति-भाँतिके भोग भोगो, दिव्य रसका पान करो, विहरो तथा पृथ्वी या धनका यथेष्टरूपसे दान करो॥२३॥
'तुम मुझपर विश्वास करके भोग भोगनेकी इच्छा करो और निर्भय होकर मुझे अपनी सेवाके लिये आज्ञा दो। मुझपर कृपा करके इच्छानुसार भोग भोगती हुई तुम-जैसी पटरानीके भाई-बन्धु भी मनमाने भोग भोग सकते हैं॥२४॥
'भद्रे! यशस्विनि! तुम मेरी समृद्धि और धन सम्पत्तिकी ओर तो देखो। सुभगे! चीर-वस्त्र धारण करनेवाले रामको लेकर क्या करोगी?॥२५॥
'रामने विजयकी आशा त्याग दी है। वे श्रीहीन होकर वन-वनमें विचर रहे हैं, व्रतका पालन करते हैं और मिट्टीकी वेदीपर सोते हैं। अब तो मुझे यह भी संदेह होने लगा है कि वे जीवित भी हैं या नहीं॥२६॥
'विदेहनन्दिनि! जिनके आगे बगुलोंकी पंक्तियाँ चलती हैं, उन काले बादलोंसे छिपी हुई चन्द्रिकाके समान तुमको अब राम पाना तो दूर रहा, देख भी नहीं सकते हैं॥२७॥
'जैसे हिरण्यकशिपु इन्द्रके हाथमें गयी हुई कीर्तिको न पा सका, उसी प्रकार राम भी मेरे हाथसे तुम्हें नहीं पा सकते॥२॥
'मनोहर मुसकान, सुन्दर दन्तावलि तथा रमणीय नेत्रोंवाली विलासिनि! भीरु! जैसे गरुड़ सर्पको उठा ले जाते हैं, उसी प्रकार तुम मेरे मनको हर लेती हो॥२९॥
'तुम्हारा रेशमी पीताम्बर मैला हो गया है। तुम बहुत दुबली-पतली हो गयी हो और तुम्हारे अंगोंमें आभूषण भी नहीं हैं तो भी तुम्हें देखकर अपनी दूसरी स्त्रियोंमें मेरा मन नहीं लगता॥३०॥
'जनकनन्दिनि! मेरे अन्तःपुरमें निवास करनेवाली जितनी भी सर्वगुणसम्पन्न रानियाँ हैं, उन सबकी तुम स्वामिनी बन जाओ॥३१॥
'काले केशोंवाली सुन्दरी! जैसे अप्सराएँ लक्ष्मीकी सेवा करती हैं, उसी प्रकार त्रिभुवनकी श्रेष्ठ सुन्दरियाँ यहाँ तुम्हारी परिचर्या करेंगी॥३२॥
'सुभ्रु! सुश्रोणि! कुबेरके यहाँ जितने भी अच्छे रत्न और धन हैं, उन सबका तथा सम्पूर्ण लोकोंका तुम मेरे साथ सुखपूर्वक उपभोग करो॥३३॥
'देवि! राम तो न तपसे, न बलसे, न पराक्रमसे, न धनसे और न तेज अथवा यशके द्वारा ही मेरी समानता कर सकते हैं॥३४॥
'तुम दिव्य रसका पान, विहार एवं रमण करो तथा अभीष्ट भोग भोगो। मैं तुम्हें धनकी राशि और सारी पृथ्वी भी समर्पित किये देता हूँ। ललने! तुम मेरे पास रहकर मौजसे मनचाही वस्तुएँ ग्रहण करो और तुम्हारे निकट आकर तुम्हारे भाई-बन्धु भी सुखपूर्वक इच्छानुसार भोग आदि प्राप्त करें॥३५॥
'भीरु! तुम सोनेके निर्मल हारोंसे अपने अंगको विभूषित करके मेरे साथ समुद्र-तटवर्ती उन काननोंमें विहार करो, जिनमें खिले हुए वृक्षोंके समुदाय सब ओर फैले हुए हैं और उनपर भ्रमर मँड़रा रहे हैं'॥३६॥
*इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके सुन्दरकाण्डमें बीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥२०॥*