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॥श्री अग्र भागवत॥

 

तेईसवाँ अध्याय

 

समत्व

 

॥जैमिनिरुवाच॥

श्रुतस्ते ह्यग्रसेनस्य सुकर्म जनमेजय। 

अतः परं यदभवत् शृणु विस्मयकारकम्॥१॥

जैमिनी जी कहते हैं—धर्मज्ञ जनमेजय! तुमने श्री अग्रसेन के श्रेष्ठ कर्मों की संक्षिप्त गाथा सुनी। अब उसके पश्चात मनुष्यों को विस्मय में डालने वाली (आश्चर्यजनक) जो घटना घटी, उसे सुनो।

 

एकदा बन्धनस्थं तं शकुन्तं द्विजसत्तमम्। 

अग्रसेनोऽब्रवीद् वाक्यं पूर्ववृत्तमनुस्मरन्॥२॥

एक दिन महाराजा अग्रसेन ने कारागार में अपराधी स्वरूप बंधे हुए शाकुन्त नाम के ब्राह्मण को देखकर मन में पूर्व स्मरण करते हुए कि वह तो उनका बचपन का मित्र है, उस शाकुन्त से पूछा—

 

॥अग्रसेन उवाच॥

किं त्वया किल्बिषं मित्र कृतं कर्म सुदारुणम्। 

इमामवस्थां गमितो यस्त्वं मे वद साम्प्रतम्॥३॥

महाराजा अग्रसेन ने पूछा—मित्र! तुमने कौन-सा भयंकर कर्म करके ऐसा पापकर्म किया है? तुमने ऐसा क्या अपराध किया है कि जिसके कारण तुम इस अवस्था को प्राप्त हुए?

 

किं कृतं निन्दितं कर्म प्राप्तस्त्वं कां गतिं कुतः?। 

न शान्तिमधिगच्छामि पश्यंस्त्वां दुःखितं द्विज॥४॥

हे मित्र! तुम किस निन्दित कर्म के कारण इस दुर्गति को प्राप्त हुए और तुमने यह सब क्यों किया? हे द्विज! तुम्हे इस दुखःद दुरावस्था में पड़ा देखकर मेरे मन को कदापि शांति नहीं मिल सकती।

 

॥जैमिनिरुवाच॥

एवमुक्तः प्रत्युवाच शाकुन्तोऽयं तदा शनैः।

ईषदुच्छ्वासयुक्तस्तु कृच्छ्रात् संस्तभ्य च स्वयम्॥५॥ 

उत्ससर्ज गिरं मन्दां विवशं पाशपीडितः। 

यस्मादेवंविधं कर्म चाकरोत् स बुभुक्षितः॥६॥

जैमिनी जी कहते हैं—धर्मज्ञ जनमेजय! महाराजा अग्रसेन के इस प्रकार पूछने पर वहाँ उस समय बंधन से पीड़ित होकर धीरे धीरे सांस लेते हुए उस ब्राह्मण शाकुन्त ने बड़ी कठिनाई से अपने को सम्हालकर, जिस प्रकार दैवयोग से भूख से पीड़ित रहकर अकर्म करना पड़ा, उस विवशता को उसने प्रत्युत्तर स्वरूप मंद स्वरों में अपने मित्र श्री अग्रसेन से कहा—

 

॥शाकुन्त उवाच॥

बाला भृशं क्षुधाक्षामाः यथाऽबाधन्त ते शवाः। 

छिन्नं वस्त्रं तु मत्पत्न्याः मां नाबाधत भो नृप॥७॥

शाकुन्त ने कहा—महाराज! मेरे बच्चे क्षुधा से क्षीण होकर शव के समान हो गए, बन्धुजन बहुत कम आशय (मतलब) रखने वाले रह गए, पत्नी फटे वस्त्रों में जीती है, यह सब मेरे लिये इतने कष्ट दायी नहीं हैं।

 

दारिद्र्यानलसन्तापः शान्तः सन्तोषवारिणा। 

दारिद्रयस्यापरा मूर्तिर्याच्ञा शीलकुठारिका॥८॥

दरिद्रता (गरीबी) रूपी अग्नि का संताप तो संतोष रूपी वर्षाजल से शांत हो जाता है। किन्तु दरिद्रता की जो परमूर्ति स्वरूप है, वह है—याचना। जो कि मनुष्य के शील को कठोर कुल्हाड़ी के प्रहार से काट डालती है। (अर्थात् याचक की कामना पूर्ण होने पर भी उसका गौरव तो नष्ट हो ही जाता है और कामना पूर्ण नहीं होने पर उसके मन में विद्रोह जन्मता है। दोनों ही स्थिति शील की भंजक होती है)

 

अत्यन्तविमुखे देवे व्यर्थे यत्ने च पौरुषे। 

मनस्विनो दरिद्रस्य मृत्युरन्यत्कुतः सुखम्॥९॥

राजन्! जिसका विधाता वाम हो गया हो, यत्न और पुरुषार्थ भी नष्ट हो गए हों, ऐसे मनस्वी किन्तु दरिद्र मनुष्य को मृत्यु के अतिरिक्त अन्यत्र कहाँ सुख मिल सकता है?

 

मनस्वी म्रियते कामं कार्पण्यं न तु गच्छति। 

अपि निर्वाणमायाति नानलो याति शीतताम्॥१०॥

हे राजन्! मनस्वी (स्वाभिमानी) मनुष्य मर मिटता है, किन्तु किसी के आगे दीन नहीं बनता। जिस तरह कि आग भले ही बुझ जाय; किन्तु जीवित रहते वह ठंडी नहीं होती, गर्म ही बनी रहती है।

 

वरं विभवहीनेन प्राणैः सन्तर्पितोऽनलः। 

यच्चात्रैव हि याच्ञेयं जीवनं गर्हितं हि तत्॥११॥

हे राजन्! वैभव हीन हो जाने पर मनुष्य अपने आपको यदि आग में होम कर दे, तब तो ठीक है; किन्तु मांग कर याचक का जीवन यापन करना अत्यन्त ही गर्हित (हेय) कार्य है।

 

अन्यवृत्तिहरं नित्यं लोके दत्तं सुदारुणम्। 

कीर्तिलोभेन वा दद्यात् यो जीवेत् जीवयेच्च सः॥१२॥

राजन्! जो लोग इस लोक में नित्य ही दूसरों की वृत्ति (आय के स्रोतों) का निष्ठुरता पूर्वक हरण करके उसे दुःखी करते हैं। वे ही कीर्ति के लोभ में दाता बनकर अपना यश फैलाना चाहते हैं। ऐसा 'दाता' प्रयत्नपूर्वक याचक को और स्वयं को जीवित रखता है।

 

दारिद्रयाद् ह्रियमेति तत्परिगतः सत्त्वात्परिभ्रश्यते। 

निःसत्त्वः परिभूयते परिभवान्निर्वेदमापद्यते।

निर्विष्णः शुचमेति शोकनिहतो बुद्ध्या परित्यजते। 

निर्बुद्धिः स्वयमेत्यहो कृपणतां सर्वापदामास्पदम्॥१३॥

महाराज! दरिद्र होने पर मनुष्य को लज्जा घेरती है, लज्जित होने पर व्यक्ति का पुरुषार्थ नष्ट हो जाता है, पुरुषार्थ के अभाव में वह सर्वत्र अपमानित होता है, और अपमानित होने पर हृदय में ग्लानि होती है, ग्लानि होने से शोक होता है, और शोक होने पर बुद्धि ही भ्रष्ट हो जाती है। बुद्धि भ्रष्ट हो जाने पर तो मनुष्य स्वयं ही नष्ट हो जाता है। इस प्रकार हे राजन्! दरिद्रता में ही सभी विपत्तियों का निवास है।

 

अस्वतन्त्रं हि मां राजन् क्षुधा यावद्चोदयत्। 

तस्य तत्किल्बिषं लुब्ध विद्यते यदि किल्बिषम्॥१४॥

राजन्! मैं तो पराधीन था। क्षुधा (भूख) ने ही मुझे विवश कर अकर्म के लिये प्रेरित किया था; अतः इसमें जो कुछ भी दोष है वह मेरा नहीं भूख का है, जिसके मैं अधीन था।

 

वास्तवं तन्मया प्रोक्तं समक्ष प्रस्तुतं तथा। 

अनुरूपं यदत्रान्यद् तद् भवान् कर्तुमर्हति॥१५॥

हे भवान्! अब आपको जो भी जैसा भी उचित प्रतीत हो, आप वैसा निर्णय करें। जो वस्तुस्थिति है, वह मैंने आपके समक्ष प्रस्तुत कर दिया।

 

(ज्ञातव्य– किसी भी अपराध के लिये उसके कर्ता के समान ही उस अपराध के लिये प्रेरित करने वाला भी दण्ड का भागी होता है; अतः शाकुन्त ने अपनी विद्वता के अनुरूप समस्त परिस्थितियों का सारगर्भित विचारणीय विश्लेषण कर दिया)

 

॥जैमिनिरुवाच॥

इत्युक्तं तेन विप्रेण परिष्वज्य नरोत्तमम्॥१६॥

जैमिनी जी कहते हैं—उस ब्राह्मण (शाकुन्त) के, इस प्रकार कहने पर नरश्रेष्ठ अग्रसेन ने उसे गले से लगा लिया।

 

॥अग्रसेन उवाच॥

नानागसं स्वं पाशेन सन्तापयितुमर्हसि। 

सर्वात्मानं चिन्तय त्वं नाकुलेन्द्रियचेतनः॥१७॥

श्री अग्रसेन जी विचार करने लगे कि इस प्रकार निरपराध को बंधन में रखकर कष्ट देना उचित नहीं। उनका अंतःकरण चिन्ता विशेष से व्याप्त हो गया और उनकी चेतन इंद्रियाँ व्याकुल हो उठीं।

 

अवृत्त्या क्लिश्यमानोऽपि वृत्त्युपायान् विगर्हयन्। 

प्रज्ञासम्भावितो वृत्त्या हीयमानेऽसि दुष्कृतः॥१८॥

(महाराज अग्रसेन मन-ही-मन विचार कर रहे थे कि) निश्चय ही जीवन-निर्वाह का कोई उपाय न होने के कारण क्लेश पूर्ण जीवन जीते-जीते तथा जीवन यापन के लिये (स्वाभिमानवश) याचक का स्वरूप न अपनाते हुए अपनी उत्तम बुद्धि के द्वारा सम्मान के योग्य होने पर भी दुराचारियों द्वारा तिरष्कृत होकर ही इसने दुष्कर्म किया है।

 

क्षम्यतां मुच्यतामेष द्विजो मित्रं हि मार्दवात्। 

कस्मादहं न क्षमेय विप्रे कुर्यां न किं? कुतः?॥१९॥

श्री अग्रसेन जी मन में चिन्तन कर रहे थे कि कोमलता का आश्रय लेकर इस श्रेष्ठ ब्राह्मण, जो कि मित्र भी है, के अपराध को क्षमा कर इसे छोड़ दिया जाय। क्या कारण है कि मैं इसके अपराध को क्षमा न करूँ? तथा किसलिये इस हेतु प्रयत्न न करूँ?

 

सकिल्बिषं विप्रमकिल्बिषं वा 

कृतागसं धर्मविदस्त्यजन्ति। 

जनो यदि ह्येष सकिल्बिषः स्यात् 

नृपोऽपि तत्कारणतां प्रकल्प्यते॥२०॥

किन्तु अपने किए गए कृत्य के अनुकूल तो वह अपराधी है और धर्मज्ञ पुरुष अपराधी स्वकीय होने पर भी उसका परित्याग कर देते हैं। (तो क्या मुझे इसकी मित्रता का परित्याग कर देना चाहिये और अपराध का दंड देना चाहिये?) किन्तु न्याय करते समय अपराध के कारण को भी प्रकल्पित किया जाता है तो (राजा प्रजा के सम्यक् पालन-पोषण का उत्तरदायी होता है।) मैं राजा हूँ। प्रजा में दरिद्रता का कारणभूत होने के कारण मैं भी तो इस अपराध के दोष में सहभागी हुआ?

 

चिन्तयतो नालभ्यत तमेवार्थं सुखं क्कचित्। 

तस्य चिन्तापरीतस्य द्विधा जातं मनस्तदा॥२१॥

इस प्रकार इसी विषय पर चिन्तन करते हुए महात्मा अग्रसेन बेचैन हो गए। सुख से रहित और चिन्ता से घिरे हुए उनके मन में दुविधा उत्पन्न हो गई।

 

॥गार्ग्य उवाच॥

शिष्टाचारे मनः कृत्वा प्रतिष्ठाप्य च सर्वशः।

यामयं लभते वृत्तिं सा न शक्या ह्यतोऽन्यथा॥२२॥

महर्षि गार्ग्य ने कहा—वत्स! मनुष्य शिष्ट पुरुषों के उपयुक्त आचरण में मन को सब प्रकार से स्थापित करके जिस उत्तम स्थिति को प्राप्त करता है, उसकी उपलब्धि किसी अन्य प्रकार से नहीं हो सकती।

 

न यच्छन्ति परां बुद्धिम् आरम्भे न्याययुक्तयः। 

नावं धृतिमयीं कृत्वा नदीं दुर्गाणि संतरेत्॥२३॥

वत्स! अपनी श्रेष्ठ बुद्धि को सदैव संयमित रखो। किसी भी आचरण का आरम्भ ही न्याय युक्त रहे। जिस प्रकार नदी में विभिन्न जीव-जन्तु रहते है, उसी प्रकार क्लेशों से युक्त इस जगत् सरिता में जन्म-मरण, न्याय-अन्याय, पाप-पुण्य आदि दुर्गम प्रदेशों और क्लेशों से धैर्य की नाव पर बैठकर ही पार जाया जा सकता है।

 

प्रेक्षमाणा लोकयात्रां धर्ममात्महितं तथा। 

न्यायोपेतानि पुण्यानि तथा पापानि चिन्तये॥२४॥

हे नृपश्रेष्ठ! न्यायपूर्वक लोकयात्रा कैसे हो? धर्म की रक्षा कैसे हो? आत्मा का कल्याण किस तरह हो? तथा भाँति-भाँति के पुण्य-कर्मों तथा पाप-कर्मों की जो समीक्षा करते हैं, वे ही राजा धन्य हैं।

 

अग्र त्वमेव जानासि न्यायवादान् सनातनान्। 

त्वमेव धर्मशास्त्रेषु सूक्ष्मेषु परिनिष्ठितः॥२५॥

राजन् अग्रसेन! सनातन न्याय सिद्धांत क्या है? इसे तुम अच्छी तरह से जानते हो। धर्मशास्त्र के सूक्ष्म विषयों के भी तुम परिनिष्ठित विद्वान् हो। (अतः तुम्हे निर्देशों की आवश्यकता नहीं है, तुम स्वयं न्याय करने में सक्षम हो।)

 

॥जैमिनिरुवाच॥

ततः परिषदं सर्वामामन्त्र्य हितमुत्तमम्। 

उवाच चोचितमतिः धर्मोपेतं हितं वचः॥२६॥

जैमिनी जी कहते हैं—उस समय राज्य सभा में बैठे हुए सभी लोगों को सम्बोधित करते हुए महाराजा अग्रसेन ने सबके आनन्द को बढ़ाने वाली कुलोचित मति के अनुकूल, न्यायसंगत, धर्मानुकूल तथा लोकहितकारी बात विनम्रभाव से कही।

 

॥अग्रसेन उवाच॥

असत्यपि कृते कार्ये नेह कर्म विलिप्यते। 

तस्माद्वाऽत्रैकहेतुः स, स्याद् दण्डः किं प्रयोजनः॥२७॥

श्री अग्रसेन जी ने कहा—दुष्टतापूर्ण कार्य करके भी यदि कारण के वशीभूत कर्ता को उस दोष से अलिप्त माना जाएगा, तब तो जो अपराधी अपने अपराधों के कारण राजाओं द्वारा दण्ड प्राप्त करते हैं, उन्हें दण्ड का कोई प्रयोजन ही नहीं रह जाएगा।

 

यथाच्छायातपौ नित्यौ सुसम्बन्धौ निरन्तरम्। 

स्वकर्मप्रत्ययाल्लोके तथा सुकृतदुष्कृते॥२८॥

जैसे धूप और छाया दोनों ही नित्य, निरंतर तथा एक दुसरे के कारण हैं। (कारण तो अच्छे-बुरे प्रत्येक कर्म का होता ही है, किन्तु कारण के कारण कृत्य को सम्पूर्ण रूप से नकारा नहीं जा सकता। अपराध के लिये प्रेरित करने वाले कारणों पर विवेक द्वारा विजय पाई जा सकती है अतः कुकृत्य से बचा जाना चाहिये।) मनुष्य को अपने कृत्य का फल भोगना ही पड़ता है। न्यायनीति के अनुसार शाकुन्त अपराधी है।

 

अभयं सर्वभूतेभ्यो याच्ञाभिलषितं ददेत्।

दत्तं दातारमन्वेति यद् दानं श्रेष्ठमुच्यते॥२९॥

तदनन्तर श्री अग्रसेन ने कहा—समस्त प्राणियों को अभय दान देना, याचक को उसकी अभीष्ट वस्तु देना और देकर भूल जाना ही श्रेष्ठ दान है । (अर्थात् दान देकर उसका गुणगान करने से दान का महत्व क्षीण हो जाता है अतः यश के मोह की गंध से रहित दान ही श्रेष्ठ दान है।)

 

अमित्रमपि चेद् दीनं शरणैषिणमागतम्। 

व्यसने योऽनुगृह्राति स वै पुरुषसत्तमः॥३०॥

शत्रु भी यदि शरण पाने की इच्छा से दीन होकर घर पर आ जाय, तो उसके संकट के समय पर उसपर अनुग्रह (दया) करने वाला व्यक्ति ही मनुष्यों में श्रेष्ठ है।

 

म्रियते याचमानो वा जीयते च ददत् सदा। 

आनृशंस्यं परो धर्मः याच्यते यत् प्रदीयते॥३१॥

याचक मर जाता है (जीते जी भी तथा मरने पर भी गणना हीन ही रहता है) जबकि दाता सर्वदा जीवित रहता है (जीते जी लोगों की सद्भावना में और मृत्यु के उपरान्त यश के रूप में अमर रहता है।)। याचक को दिया गया दान ही मनुष्य का दया रूपी परम धर्म है।

 

कृशाय कृतविद्याय वृत्तिक्षीणाय सुव्रत। 

क्रिया नियमिताः कार्याः पुत्रैदार्रैश्च सीदते॥३२॥

अयाचमानाः सर्वज्ञाः सर्वोपायैः प्रयत्नतः। 

ते रक्षणीया विद्वांसः सर्वकामसुखावहैः॥३३॥

जो व्यक्ति विद्वान् अथवा योग्य होने के बावजूद भाग्यवशात् अपनी आजीविका के क्षीण हो जाने के कारण दीन (निर्धन) हो जाते हैं, तथा स्त्री-पुत्रादिकों के पालन कर सकने में असमर्थ हो जाने के कारण अनेकों कष्ट उठाते हैं। तथापि किसी से याचना नहीं करते, ऐसे (स्वाभिमानी) पुरुषों को प्रत्येक उपाय से सहयोग देने के लिये प्रयत्न करना चाहिये। उनकी उपयुक्त आवश्यकताओं की जानकारी लेकर उनके सुख की स्थापना हेतु हमें सदैव समुचित कर्म करना चाहिये।

 

भस्मच्छन्नाग्निवन्निस्स्वान् प्राज्ञान्नोद्वेजयेज्जनः। 

तदाऽऽशिषः समेषां स्युः बुद्धयेथास्त्वं प्रयत्नतः॥३४॥

ऐसे पुरुष राख में छिपी हुई अग्नि के समान होते हैं। वे सारे जग को उद्विग्न करने में समर्थ होते हैं। ऐसे व्यक्ति दुःखातुर होने पर विषधर के समान भयंकर हो सकते हैं; अतः ऐसे व्यक्तियों का प्रयत्नपूर्वक पता लगाना चाहिए।

 

॥विभुरुवाच॥

अयाचतः सीदमानान् किमुपायेन चार्चयेत्?। 

एतदिच्छामि विज्ञातुं याथातथ्येन कथ्यताम्॥३५॥

विभुसेन ने पूछा—हे प्रभो! (पिताश्री) जो व्यक्ति कष्ट उठाने पर भी किसी से याचना नहीं करते, उनका किस प्रकार तथा किस उपाय से उपकार किया जा सकता है? मैं इस बात को यर्थाथ रूप से जानना चाहता हूँ।

 

॥अग्रसेन उवाच॥

यदि राष्ट्रे वसेयुस्ते पूजार्हाः स्युर्यथातथम्। 

वृत्तिमर्हन्त्यवक्षेपे त्वदन्यस्मान् ममात्मजात्॥३६॥

 

श्री अग्रसेन ने कहा—हे आत्मज! यदि राष्ट्र में इस प्रकार के लोग हों, तो वे निश्चित ही पूजन के योग्य हैं। ऐसे लोगों को तुम्हारे अतिरिक्त दूसरा कौन जीविका दे सकता है? (अर्थात् उन्हें दान देने की अपेक्षा उनकी आजीविका का प्रबंध अवश्य करना चाहिये।)

 

अभिहारं याच्यमाहुरनीशस्यापि मृत्युताम्।

श्रेयो ह्ययाचमानस्य दानमत्र न संशयः॥३७॥

क्योंकि दरिद्र (निर्धन) की याचना उसके लिये तिरस्कार का कारण बनती है। जिसके कारण याचना मृत्यु का दूसरा द्वार प्रतीत होती है, अतः जो कष्टों को अंगीकार करते हैं, किन्तु याचना करना स्वीकार नहीं करते, ऐसे मनस्वी पुरुष निश्चय ही श्रेष्ठ हैं। इसमे कोई संदेह नहीं।

 

यथा पत्याश्रयो धर्मः स्त्रीणां लोके सनातनः। 

सदैव सा गतिर्नान्या तथाऽस्माकं प्रजाश्रयः॥३८॥

वत्स! जैसे इस संसार में स्त्रियों का सनातन धर्म पति की सेवा पर ही अवलम्बित है, उसी प्रकार प्रजानन ही सदैव हमारे आश्रय हैं। हम लोगों (राजा) के लिये उन (प्रजाजनों) के अतिरिक्त और कोई गति नहीं है।

 

विशेषः - महाराजा अग्रसेन अपनी संतति को राजधर्म की व्याख्या करते हुए इस श्लोक में निर्देशित करते हैं कि जिस तरह स्त्रियों का सनातन धर्म है – पति की सेवा करना और उसका आश्रय स्थल, संरक्षक, पालन-पोषण कर्ता पति ही होता है, वैसे ही राजा का स्वरूप स्त्री की तरह अपने पति स्वरूप प्रजा जनों की सेवा ही है क्योंकि प्रजा को तो दूसरा राजा मिल सकता है, किन्तु राजा के लिये तो वह प्रजामात्र ही उसकी संरक्षक होती है। अतः राजा का धर्म है कि—वह प्रजा की सेवा करे। 

 

येषां भोज्यान्यपेक्षन्ते गृहे दाराश्च बालकाः। 

नाश्नन्ति विधिवत् ते च किं नु पापतरं ततः॥३९॥

हे वत्स! जिसकी पत्नी तथा बच्चों की तरसती हुई आँखे भोजन की ओर ललचाई हुई दृष्टि से देखती हों और वह उन्हे न्यायतः खाने को नहीं मिलता हो, उस पुरुष के लिये इससे बढ़कर और कोई भी कृत्य (दुष्कृत्य) क्या पाप होगा? (अर्थात् ऐसी परिस्थिति ही अकर्म को जन्म देती है और ऐसी परिस्थिति भोगने पर उसके लिए पाप-पुण्य की परिभाषा निरर्थक हो जाती हैं।)

 

यदि ते तादृशः कोऽपि सीदेच्च क्षुधया जनः। 

अवृद्धिमेति तद्राष्ट्रं नरकं चाधिगच्छति॥४०॥

वत्स! यदि किसी राष्ट्र में कोई व्यक्ति इस तरह भूख से कष्ट पा रहा हो तो उस राष्ट्र की उन्नति रुक जाती है। साथ ही वह राष्ट्र शत्रु राजाओं के हाथ में चला जाता है। (क्योंकि वहाँ विद्रोह की संभावना सदैव विद्यमान रहती हैं।)

 

यत् किञ्चित् पुरुषः पापं कुरुते वृत्तिकर्शितः।

तस्य पापस्य सर्वस्वं राजा विन्दति निश्चयः॥४१॥

वत्स! आजीविका के न रहने पर मनुष्य क्लेश में पड़कर जो कुछ भी पापकर्म कर डालता है, उसके द्वारा किए गए पापकर्म का सारा दोष निश्चय ही राजा को प्राप्त होता है।

 

अजुगुप्संश्च विज्ञाय स भवान् वृत्तिकर्शितान्। 

उपच्छन्नं प्रकाशं वा वृत्त्या तान् परिपालयेत्॥४२॥

इसलिये हे वत्स! जिनका पूर्व आचरण निन्दित न हो और यदि वे जीविका के बिना कष्ट पा रहें हों तो ऐसे पुरुषों का पता लगाकर गुप्त या प्रकट रूप में उनकी आजीविका का प्रबंध करके सदा उनका पोषण करते रहना चाहिये। यही राजधर्म है।

 

अपरेषां परेषां च परेभ्यश्चापि ये परे। 

कस्तेषां जीवितेनार्थस्त्वां विना बन्धुराश्रयः॥४३॥

छोटे, बड़े तथा जो बड़े से भी बड़े हैं या उनसे भी आगे हैं, परस्पर बन्धु जनों के आश्रय बिना उनके जीवन का क्या प्रयोजन है? अर्थात् – ऐसे लोग जो छोटे-बड़े, अमीर- गरीब के विभेद से, परस्पर सौजन्य से हीन हो उनका जीवन निरर्थक ही है।

 

ज्ञातव्य :- जो व्यक्ति दुःखद परिस्थितियों में भी स्वयं कष्ट झेल लेते हैं किन्तु किसी के आगे हाथ नहीं फैलाते, याचना नहीं करते, ऐसे पुरुषों की गुप्त रूप से सहायता करने का (उपकार किये जाने की भावना से रहित यह 'उपकार हीन उपक्रम' किये_जाने का) महाराजा श्री अग्रसेन ने निर्देश दिया है।

 

सर्वोत्थानाय सश्रद्धं भ्रातृ‌भावेन चावह। 

योगं क्षेमञ्च मन्वानः गृह्णीयुस्तेऽभिमानतः॥४४॥

वे मनस्वी (स्वाभिमानी) पुरुष, जो किसी की सहायता पर अवलम्बित नहीं रहते (किसी से दुःख में भी याचना नहीं करते) उनको यदि सर्वोत्थान की दृष्टि से,भ्रात (बंधु) भावना से, श्रृद्धायुक्त (एहसान जताते हुए नहीं अपितु उपकारहीन उपक्रम के रूप में) और पवित्र मन से, (लोकेष्णा के स्वार्थ से रहित) 'योगक्षेम' की (यह मेरा कर्तव्य है इस प्रकार मानकर) कर्तव्य बुद्धि से सहयोग किया जाय, तो वे स्वाभिमानी पुरुष इसे उत्तम कार्य मानकर स्वीकार कर लेंगे।

 

अभिमत :

प्रत्येक समाज में अपने-अपने भाग्य के अनुकूल व्यक्ति सम्पति, ज्ञान, बल आदि से कम ज्यादा होता ही है। कुछ कमजोर हैं और कुछ उनसे सशक्त, कुछ उन सबसे आगे और कोई विशिष्ट श्रेयता को प्राप्त सबसे आगे। किन्तु परस्पर अपने दीन-हीन बन्धुओं के प्रति सम्पन्न व्यक्तियों में बन्धुत्व भाव का अभाव होने पर सौजन्यता बिना उनका जीवन स्वयं ही निरर्थक हो जायगा; अतः समाज में कभी भी विभेद की परिस्थिति पैदा न होने दी जाय, अपितु परस्पर सौजन्यता के साथ बन्धुत्व की भावना का विकास होना चाहिये ।

 

॥अग्रसेन उवाच॥

देयानि वृत्तिक्षीणाय पौरैरेकैकशः क्रमात्। 

गत्वा निष्केष्टिकां दद्युः जनः कुर्यान्नयाचनाम्॥४५॥

श्री अग्रसेन ने कहा –हे वत्स! इसलिये आज से इस राष्ट्र (आग्रेय) में जो भी व्यक्ति यदि भाग्यवशात आजीविका से हीन हों, उन्हें बिना याचना किये ही राज्य के सभी निवासी (निष्क =एक रुपया और एक एक ईंट) स्वयं उनके पास जाकर उन्हें भेंट स्वरूप प्रदान करें।

 

ज्ञातव्यः द्वापर के उस अन्तिम चरण में विनिमय की दृष्टि से जो निष्क = धातुअंश प्रचलन में रहा होगा उस ('स्वर्णमुद्रा' को हम आज विनिमय के आधार रुपये के रूप मे 'रुपया' कह सकते है।) रुपये-ईंट के नियम को लागू किये जाने के मूल में महाराजा श्री अग्रसेन की जो भावना निहित है उस पर यहाँ चिन्तन अप्रासंगिक नहीं अपितु आवश्यक है। इस नियम के मूल में आवश्यकता है :-

 

१- ऐसे व्यक्ति की जो याचना नहीं करता किन्तु उसे सहयोग दिया जाना चाहिये, सामाजिक स्तर पर तलाश करनी चाहिये। समाज को एक दूसरे का ध्यान रखना चाहिये।

 

२- ऐसे व्यक्ति की आजीविका के प्रबंध हेतु राज्य के सभी बंधुओं को ऐसे व्यक्ति के घर स्वयं जाकर उस पर उपकार करने की दृष्टि से नहीं अपितु सद्भावना की दृष्टि से, कर्ज स्वरुप नहीं भेंट स्वरूप उसे प्रचलित मुद्रा और ईंट देने का विधान किया गया था। भेंट दी गई वस्तु में ना उपकार की भावना होती और न ही भेंट स्वीकार करने वाले के स्वाभिमान को ठेस ही पहुँचती।

 

निवेदन :-

यह सर्वोत्थान की भावना से लागू किया गया 'उपकारहीन उपक्रम' समता स्थापित कर और बन्धुत्व की भावना का विकास कर व्यक्ति के, समाज के, राष्ट्र के तथा मानवता के कल्याण का सूत्र है। 'समाजवाद' या 'साम्यवाद' जैसे सीमित शब्द से इस व्यवस्था का आकलन करना, इस समता के सर्वलोक कल्याणकारी स्वरूप की गरिमा को क्षीण करना ही है। विदुजन 'महाराजा अग्रसेन' के इस समता के सिद्धांत की अन्तर्भावना का यथार्थ चिंतन कर उसे प्रकाशित करने का प्रयत्न करें।

 

एष ते विततं वत्स सर्वभूतकुटुम्बकम्। 

विशिष्टः सर्वयज्ञानां नित्यमत्र प्रवर्तताम्॥४६॥

श्री अग्रसेन ने कहा—हे वत्स! इस प्रकार सभी प्राणियों के प्रति कुटुम्बवत समत्व स्थापना के इस पुनीत कार्य का जो विस्तार होगा, वह सभी यज्ञों से बढ़कर है; अतः तुम लोगों को इस कर्म यज्ञ को सदैव गतिशील रखना चाहिए और आगे बढ़ाते रहना चाहिए।

 

वत्सानेन प्रकारेण कुरु लोकहितव्रतम्। 

यत् करिष्यसि कल्याणं तत् ते लोके सुखावहम्॥४७॥

हे वत्स! यदि तुम इस प्रकार सर्वोत्थान की भावना से इस लोकहितकारी व्रत को धारण कर कार्य करोगे तो वह निश्चय ही जगत् के लिये सुख, शांति, समृद्धि का कारण व तुम्हारे तथा विश्व के लिये कल्याणकारी होगा।

 

॥जैमिनिरुवाच॥

अग्रस्य वचनं श्रुत्वा विभुः सच्छिन्नसंशयः।

हर्षेण महता युक्तः सजनः सपुरोहितः॥४८॥

जैमिनी जी कहते हैं—हे कुरुकुल भूषण जनमेजय! श्री अग्रसेनजी के इस प्रकार समता के सिद्धान्त को लागू किये जाने वाले सामुदायिक दायित्व के इस नियम से उनके 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावनायुक्त चिन्तन एवं निर्देशों को सुनकर प्रजासहित उनके सभी पुत्रों तथा राजगुरु महर्षि गर्ग को अत्यन्त प्रसन्नता हुई।

 

॥इति जैमिनीये जयभारते भविष्यपर्वणि अग्रोपाख्यानस्य यद्विरचितम् श्रीमदग्रभागवते त्रयोविंशोऽध्यायः॥ 

॥शुभं भवतु कल्याणम्॥

 

महर्षि जैमिनी विरचित जयभारत के भविष्यपर्व के अग्रोपाख्यानम् के श्रीमद् अग्रभागवतम् स्वरूप का तेइसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ। यह शुभकारी आख्यान सबके लिये कल्याणकारी हो।