॥श्री अग्र भागवत ॥
दशम अध्याय
आधार
॥ जैमिनिरुवाच ॥
जयस्य हेतुः सिद्धिर्हि कर्म दैवं च संश्रितम्।
संयुक्तो हि बलैः कश्चित् प्रमादान्नोपजायते॥१॥
जैमिनी जी कहते हैं कि मनोयोग (सिद्धि) और दैवकृपा ( भाग्य) के अनुकूल पुरुषार्थ तो सदैव ही विजय का कारण होता है। राजन्! कोई भी किसी भी प्रकार के बल (धर्मबल, धनबल, ज्ञानबल भुजाबल आदि) से संयुक्त होने पर यदि प्रमाद करे और कर्तव्यों में मन न लगावे, तो वह अपने उद्देश्य में कभी सफल नहीं होता।
मणिमुक्तास्वर्णरत्नैः पूरितान् घटकान् बहुन्।
अग्रसेनः समादाय सहवित्तो ययौ मुनिम्॥२॥
श्री अग्रसेन उस भूमि से अर्जित किए गए स्वर्ण, रत्न, मणि आदि तथा मुक्ताओं से भरे अनेकों कलशों सहित अपार संपत्ति व धनराशि को साथ लेकर आश्रम के द्वार पर आए।
सोऽभ्यगच्छत् मुनिर्गार्ग्यः सम्मुखे चाभिनन्दितः।
दीपदीपितपात्रेण ऋषेर्भार्याऽप्यपूजयत्॥३॥
उसी समय महर्षि गर्गाचार्य ने सम्मुख आकर श्री अग्रसेन का हार्दिक अभिनन्दन किया तथा ऋषि पत्नी (गार्गी) ने प्रज्जवलित दीपों की प्रकाशित थाल हाथ में लेकर मातृवत् उनकी आरती उतारी।
मातृरूपा ऋषेर्दाराः पितृरूपो महामुनिः।
नमस्कृतौ पूतपादौ राज्ञा ययतुराश्रमम्॥४॥
तब श्री अग्रसेन ने माता स्वरूपा ऋषिपत्नी (गार्गी) तथा पिता स्वरूप महामुनि गर्ग के पुण्य चरणों में (साष्टांग) प्रणाम कर पवित्र पदों से पैदल ही चलकर आश्रम को प्राप्त किया (पहुँचे)।
महोत्सवं तदा चक्रुराश्रमे तत्र वासिनः।
उच्चैर्जगुर्नाम हरेः पदैर्ललितवर्त्तनाः॥५॥
राजन्! उस सुअवसर पर सभी आश्रमवासी हर्षित होकर यथायोग्य महोत्सव मनाने लगे। फिर वे उच्च स्वरों में सुन्दर लययुक्त पदों से भगवत् नाम का संकीर्तन करने लगे।
सुवर्णरत्नवासोभिराश्रमस्थांश्च याचकान्।
अग्रसेनो द्विजान् सर्वान् समलङ्कृतवान् मुदा॥६॥
तदनंतर श्री अग्रसेन ने समस्त आश्रमवासियों तथा अन्य ब्राह्मणों को व याचकों को आनन्द पूर्वक स्वर्ण रत्न वस्त्राादि प्रदान कर उन्हें भलीभाँति अलंकृत किया।
पुरं तत्र स निर्मातुं विश्वकर्माणमादिशत्।
यद् आग्रेयमिति ख्यातं दिव्यं रम्यं मनोहरम्॥७॥
तदुपरांत उन्होंने वहाँ एक दिव्य, रमणीय तथा मनोहारी नगर जो आग्रेय के नाम से विख्यात है, के निर्माण हेतु विश्वकर्माओं (कारीगरों) को आदेश दिया।
येन लिङ्गेन यो देशो युक्तः समुपलक्ष्यते।
तेनैव नाम्ना तं देशं वाच्यमाहुर्मनीषिणः॥८॥
जैमिनी जी कहते हैं— हे राजन्! जो देश जिस चिह्न से युक्त होता है, या जिसकी ओर इंगित करता है, वह उसी रूप में पहचाना जाता है, (विद्वानों) मनीषियों का मत है कि उस देश का जिससे वह पहचाना जाए, वही नाम होना चाहिये।
ततः पुण्ये शिवे देशे शान्तिं कृत्वा विधानतः।
नगरं मापयामासुः अग्रो गार्ग्य पुरोगमाः॥९॥
तत्पश्चात् उस पवित्र एवं कल्याणमयी मही (भूमि) पर श्री अग्रसेन ने, विधिवत् शांति कर्म करवा के नगर बसाने हेतु महर्षि गर्ग के नेतृत्व में जमीन (भूमि) का माप करवाया।
पुरं लक्षणसम्पन्नां स्वायताष्टपदोपमाम्।
सिकतामृत्तिकाताम्रं कृतास्पदमिव श्रिया॥१०॥
वह स्थान नगरोपयोगी शुभ लक्षणों से सम्पन्न था तथा भूभाग शतरंज की चौसर की बिछात के सदृश्य चौकोर था। बालु के साथ ही तांबे के रंग वाली मिट्टी से सुशोभित उस स्थल में मानो महालक्ष्मी ने अपना निवास स्थान बना लिया हो।
योजनद्वादशास्तीर्णा चतुर्योजनमायता।
कपाटतोरणवती सुविभक्तमहापथा॥११॥
उस रम्य पुरी का विस्तार बारह योजन लम्बा तथा चार योजन चौड़ा आयताकार है, बड़े बड़े द्वारों और किवाड़ों से सुशोभित तथा राज्य मार्ग सुस्पष्टतया विभक्त हैं।
उद्यानवनसम्पन्ना सुसीमा सुप्रतिष्ठिता।
प्रांशुप्राकारवसना परिखाकूलमेखला॥१२॥
वहाँ नाना प्रकार के वृक्षों से युक्त उद्यान 'आग्रेय पुरी' की शोभा बढ़ाते हैं। उस पुरी की सीमाएँ श्रेष्ठ और वे अच्छी तरह से बसाई गई हैं तथा (दृढ़तापूर्वक) प्रतिष्ठित हैं। वह रम्य नगरी नारी की भांति सुशोभित हो रही है, नगर की ऊंची ऊंची चारदीवारियाँ वस्त्रों की भांति नगर को आवृत किये हुए हैं, तथा चारों ओर की खाई उसकी करधनी सी प्रतीत होती है।
स्थापयामास भागेषु देवतायतनान्यपि।
निर्मितं ह्यग्रसेनेन प्राजापत्येन कर्मणा॥१३॥
नगर के विभिन्न भागों में अनेकों देव मंदिरों की भी स्थापना करवाई गई है। श्री अग्रसेन जी ने इस नगर का निर्माण शिल्प शास्त्रों के नियमों के आधार पर करवाया है।
रथ्यावीथीर्नृणां मार्गाश्चत्वराणि वनानि च।
चित्रमष्टापदाकारं विमानगृहशोभितम्॥१४॥
राजन्! सड़कों, गलियों, जनसाधारण के मार्ग तथा अनेक चौराहों और वन-उपवनों से सम्पन्न यह पुरी द्यूत फलक के आकार में अर्थात् पुर के मध्य में राजमहल और उसके चारों ओर राजवीथियाँ, बीच की जगह खाली, इस प्रकार अष्टपदाकारा, सात मंजिल वाले विमानगृह प्रासाद से सुशोभित है।
पुरं मध्ये वर्धमानं श्रीपीठे रत्नसंस्कृते।
आराध्यते ह्यहोरात्रं द्विजाः वेदविदां वराः॥१५॥
आग्रेय नगर के मध्य में वर्धमान (दक्षिण दिशा के अतिरिक्त तीनों दिशाओं के) द्वारवाली, रत्नों से जड़ी—श्री पीठ (महालक्ष्मी मंदिर) है, जहाँ वेदवेत्ताओ में श्रेष्ठ पारंगत ब्राह्मण अहोरात्र (दिन-रात) अखंड आराधना करते हैं।
विरोचमानं विविधैः देवायतनमन्दिरैः।
वापीकूपतडागादि स प्रजार्थमकारयत्॥१६॥
विविध देवी-देवताओं के पृथक्-पृथक् श्रेष्ठ देवालय तथा अनेकों देवमंदिर भी यहाँ हैं। श्री अग्रसेन ने यहाँ बावड़ी, कुंए, पोखर आदि, एवं प्रजा के लिये पुण्य भवन, धर्मशालाएँ भी बनवाई हैं।
कृतघोषाणि सत्राणि बहुन् योगेश्वराश्रमान्।
प्रपाश्चकार विविधाः फलपत्रपयोऽधिकाः॥१७॥
यहाँ श्री अग्रसेन ने कई गोष्ठों (गौशालाओं), अन्नसत्रों तथा योगेश्वरों के निवास योग्य आश्रमों तथा अनेकों पौसलों जिनमे फल, पत्र जलादि की बहुतायत है, का भी निर्माण करवाया है।
विविधैरपि निर्बद्धेः शस्त्रोपेतैः सुसंवृतैः।
एषाऽग्रसेनस्य पुरी ह्याग्रेयी कर्मणा शुभा॥१८॥
अनेकों प्रकार के अभेद्य तथा सभी ओर से संवृत्त, अस्त्रशस्त्रों से युक्त, शस्त्रागारों से युक्त ऐसी श्री अग्रसेन की पुरी 'आग्रेय' का विश्वकर्माओं (कारीगरों) और कुशलकर्मियों ने निर्माण किया।
देशाददेशात् ते लोका आग्रेयपुरमागताः।
चातुर्वर्ण्यसमाकीर्णं नरनारीगणैर्युतम्॥१९॥
उस समय देश देशांतरों से चारों वर्णों के लोग, नर-नारीयाँ एकत्रित होकर अपने बालकों तथा पालकों के साथ 'आग्रेय' गणराज्य में बसने की इच्छा से वहाँ आने लगे।
ब्राह्मणाः वेदनिपुणाः सर्वशास्त्रविशारदाः। धर्मज्ञाः कर्मनिपुणाः शुचयः समदर्शनाः॥२०॥
उनमें बहुत से ब्राह्मण थे, जो वेदों के तत्वज्ञ, संपूर्ण शास्त्रों में पारंगत, धर्मज्ञ, कर्मकांड में निपुण, पवित्र आचरण वाले और समदर्शी थे।
भार्यापुत्रयुताः सर्वे शिष्यैर्बहुभिरन्विताः।
वैश्याः धनसमृद्धाश्च साधकाः स्वर्णकारकाः॥२१॥
उनके साथ उनकी पत्नी और पुत्रादिकों के साथ ही बहुत से शिष्य भी थे। बहुत से धन से समृद्ध वैश्य, रत्नपारखी तथा आभूषण बनाने वाले स्वर्णकार भी थे।
शिष्टाचारपरास्तत्र दानधर्मपरायणाः।
युद्धे कुशलिनः शूराः क्षत्रकर्मरतास्तथा॥२२॥
वहाँ बसने के लिए आने वालों में सदाचार परायण तथा दान धर्मादिक में न्यस्त रहने वाले व्यक्ति भी थे। राज्य में आने वालों में युद्धकला में निपुण शूरवीर तथा क्षत्रिय धर्म का पालन करने वाले लोग भी थे।
उपयोगसमर्थाश्च सर्वद्रव्यैः समावृताः।
प्रजाः संस्थापयामास सोऽग्रसेनः समा मुदा॥२३॥
ऐसे लोग जो अपनी आवश्यकता की पूर्ति करने में स्वयं समर्थ थे, तथा सभी प्रकार के द्रव्यों (गोधन, गजधन, वाजिधन, रत्नादिक) से परिपूर्ण थे, ऐसी सभी समागत प्रजा को श्री अग्रसेन जी ने प्रसन्नता पूर्वक अपने राज्य में यथा योग्य स्थान देकर बसाया।
ततस्तं विश्वकर्माणं पूजयित्वा विसृज्य च।
गार्ग्य तमब्रवीदेवम् अग्रसेनः कृतक्षणम्॥२४॥
तदनंतर विश्वकर्माओं का पूजन करके राजा अग्रसेन ने उन्हें विदा कर दिया। श्री अग्रसेन ने कृतज्ञता अभिव्यक्त करते हुये महर्षि गर्ग से कहा।
॥ अग्रसेन उवाच ॥
महर्षे त्वत्प्रसादेन राज्यं सम्पन्नमद्य मे।
धनधान्यसुसम्पन्नं परं शून्यं मनोहरम्॥२५॥
श्री अग्रसेन ने कहा— हे महर्षे! आपकी कृपा से ही मुझे यह राज्य इस प्रकार अनायास ही संभव हुआ है, जो कभी निर्जन प्रदेश था, आज धन धान्य से संपन्न रमणीय तथा मनोहारी राज्य हो गया है।
यदिष्टमनुमन्तव्यं कर्तव्यं कारयस्व मे।
त्वत्कृतः सुखदो बोधो भविष्यति यशःप्रदः॥२६॥
हे महामुने! आपके मन्तव्य (विचार) से मेरे लिये जो भी अभिष्ट हो उन कर्तव्यों का पालन करने हेतु आप मुझे निर्देश करें। आपके । प्रत्येक निर्देश एवं आदेश हमें निश्चित ही सुखदायक एवं यश प्रदायक होंगे।
॥ जैमिनिरुवाच ॥
स चाग्राणामधिपतिः अग्रसेनो महामनाः। कृतमङ्गलसत्कारो गार्ग्यस्यानुमते स्थितः॥२७॥
जैमिनी जी कहते हैं—तब आग्रेय गणराज्य के अधिपति महामना श्री अग्रसेन ने महामुनि गर्ग की सम्मति के अनुसार ही सारे मंगल कृत्य संपन्न किये।
सुतोरणद्वारपुरं प्रविवेश महाद्युतिः।
तदा संस्तूयमानोऽग्रः सूतमागधबन्दिभिः॥२८॥
तब वहाँ सूत, मगधों तथा बंदी गणों द्वारा स्तुति प्रशंसा से युक्त महाद्युति श्री अग्रसेन ने श्रेष्ठ दिशा वाले तोरण द्वार से राजधानी में प्रवेश किया।
शङ्खदुन्दुभिनिर्घोषाः श्रूयन्ते स्म भृशं तदा।
जयेति ब्राह्मणगिरः श्रूयन्ते स्म सहस्त्रशः॥२९॥
उस समय शंख और दुंदुभी आदि वाद्यों के मधुर घोष उच्च स्वरों में सुनाई दे रहे थे। साथ ही हजारों ब्राह्मणों के श्रीमुख से निकले हुए जयघोष का स्वर भी सुनाई दे रहा था।
औपवाह्यगतो राजा राजमार्गमतीत्य च।
कृतमङ्गलसत्कारं विवेश भवनं स्वकम्॥३०॥
हाथी पर विराजमान महाराजा अग्रसेन ने राज्य मार्ग को पार करके नवनिर्मित उस उत्तम राजभवन में प्रवेश किया, जहाँ वह गृह प्रवेश का मांगलिक कार्य सम्पन्न होना था।
शिखरे राजभवने महोच्छ्रायध्वजोत्कटे।
अलक्ष्यत ध्वजं पीतवर्णं भानुसुलक्षणम्॥३१॥
राजभवन के शिखर पर परम कल्याण प्रद उत्कृष्ट ध्वज फहर रहा था, जो कि पीत (पीले) रंग का तथा सूर्य के चिह्न से अंकित दिखाई दे रहा था।
ययौ स चामरव्यग्रपाणिभिः पार्श्ववर्तिभिः।
राजा च्छत्रयुतो भेजे तत्र राज्यासनं सभाम्॥३२॥
महाराजा श्री अग्रसेन अपनी राज्यसभा की ओर चल रहे थे। पीछे पीछे बहुत से सेवक चंवर डुलाते चल रहे थे। राज्य सभा में पहुँचकर वे छत्र लगे अपने राज्य सिंहासन पर विराजमान हुए।
सभायां प्रबभौ देवी दिव्या दिव्येन वर्चसा।
मणिरत्नचिता चित्रस्फटिकस्तम्भशोभिता॥३३॥
तब, वह दिव्य सभा अपनी अद्वितीय दिव्यता का भास कराने लगी। मणियों तथा रत्नों से व्याप्त उस सभा में चित्र विचित्र स्फटिक के स्तंभ अत्यंत सुंदर प्रतीत होते थे।
राज्यासनेऽग्रसेनस्य सा लक्ष्मीः परमासने।
गर्गश्च बहुशस्तस्याम् आसंश्चामात्यमन्त्रिणः॥३४॥
आग्रेय के परमासन पर अधिष्ठात्री देवी श्री महालक्ष्मी विराजमान हैं। दिव्य राज्य सिंहासन पर महाराजा अग्रसेन तथा अन्य उत्तम आसनों पर महर्षि गर्ग, बहुत से अन्य मंत्रीगण तथा अनेकों व्यक्ति उस सभा में उपस्थित थे।
तस्यैकस्योच्छ्रितं छत्रं वासन्तीवर्णशोभितम्।
विभूषितं स्वर्णदण्डं कृत्स्नस्य जगतो हितम्॥३५॥
स्वर्णदंड से युक्त वासंती रंग का छत्र जो केवल महाराजा श्री अग्रसेन के शीश पर शोभायमान था। वह जगत् के सारे पापों को विनिष्ट कर रहा था।
प्रसादाभिमुखे तस्मिँश्चपलाऽपि स्वभावतः।
निकषे हेमरेखेव श्रीरासीदनपायिनी॥३६॥
यहाँ ऐसा प्रतीत हो रहा है— मानो कि स्वभावतः चंचला लक्ष्मी भी प्रसन्नमुख श्री अग्रसेन के यहाँ आकर परमासन पर उसी प्रकार अचल भाव से स्थिर विराजमान हो गयीं, जैसे कसौटी पर खिंची हुई सोने की लकीर पक्की हो जाती है।
वयोरूपविभूतीनामेकैकं मदकारणम्।
तानि तस्मिन्समस्तानि न तस्योत्सिषिचे मनः॥३७॥
यौवन, सौंदर्य या ऐश्वर्य–इनमें से यदि एक भी वस्तु किसी के पास होती है तो, वह उसी के मद में उन्मत्त हो जाता है, किंतु महाराजा अग्रसेन के पास ये तीनों ही एक साथ हैं, तथापि उनमें इनका किंचित भी अभिमान नहीं है।
ततस्तु राष्ट्र नगरं नरनारीगणायुतम्।
गोधनैश्च समाकीर्णं सस्यवृद्धं तदाऽभवत्॥३८॥
जैमिनी जी कहते हैं— हे परम जिज्ञासु जनमेजय! अगणित नर नारियों से शोभित यह आग्रेय गणराज्य तथा इसकी राजधानी रुपी, यह नगर गोधन से संपन्न है। जिसमें दिनों दिन कृषि की उन्नति होने लगी।
प्रजाभिरष्टादशभिर्हृष्टाभिश्च समन्विताम्।
अग्रसेनः श्रियं भक्तिं व्यवर्धयत तां पुरीम्॥३९॥
इस प्रकार यहाँ हर्ष पूर्वक निवास करती हुई अट्ठारह प्रकार की प्रजाओं के साथ महाराजा अग्रसेन अपने इस राष्ट्र में राष्ट्र सरंक्षिका श्री महालक्ष्मी की भक्ति की उत्तरोत्तर वृद्धि करने लगे।
गर्गस्य तु गुरोर्मन्त्रैः अग्रसेनस्य कर्मणा।
किं न साध्यं यदुभये साधयेयुर्न संगताः॥४०॥
राजगुरु महर्षि गर्ग के गुरुमंत्र (योग्य निर्देश) तथा महाराजा अग्रसेन के पुरुषार्थ दोनों ने मिलकर जनहित के प्रत्येक कार्य को चाहे वह कितना भी दुष्कर या असाध्य क्यों ना रहा हो, सदैव पूरा किया।
श्रद्धाऽदृश्यत पौराणां प्रतिजग्राह तां स वै।
प्रश्रयेणाब्रवीद् राजा कच्चिद् आगमनं सुखम्॥४१॥
जैमिनी जी कहते हैं— राजन् जनमेजय! इस महोत्सव में प्रतापपुर से आए हुए परिचित लोगों को आया हुआ देख महाराजा अग्रसेन ने उनकी अगवानी की तथा उनसे विनम्रता पूर्वक पूछा—आप लोगों का आगमन सुखपूर्वक तो हुआ न ?
कच्चित् प्रजा कुशलिनी सह सौम्यानुजा प्रसूः।
स चाभिवाद्याग्रसेनं रुरोदोद्विग्नमानसः॥४२॥
वहाँ (प्रतापपुर में) प्रजाजन कुशल तो है न? राज पुरोहित सौम्य, ऋषि माता वैदर्भी तथा अनुज शौर्य सेन आदि कुशल मंगल तो है न? महाराजा अग्रसेन के इस प्रकार पूछने पर वे उद्विग्नमना लोग उनका अभिवादन करते करते ही रो पड़े।
ततः स कथयामास राज्ञे वृतान्तमादितः। सकूटकामुकः कुन्दो परितापेन दारुणः॥४३॥
तदनंतर उन आंगतुकों ने महाराजा अग्रसेन से उस क्रूर तथा भोगो में लिप्त कुन्दसेन के प्रजा को संतापदायक अत्याचारों का एवं प्रजा के दुखों का सारा वृत्तान्त ज्यों का त्यों (यथावत) कह सुनाया।
यत्र राजा कामरतः सदा लोकपराङ्मुखः।
तस्मिन् राष्ट्रे न वस्तव्यं हितैश्च दृढनिश्चयः॥४४॥
उन्होंने बताया कि एक दिन प्रतापपुर के पुरोहित ऋषि सौम्य ने यह दृढ़ निश्चय किया कि 'जिस राज्य का राजा दुष्ट हृदय हो, कामाचारी हो तथा प्रजा के हित के विपरीत आचरण करने वाला हो, उस राष्ट्र में (एक पल भी) रहना उचित नहीं।
तावदुक्त्वा वचः सौम्यो वैदर्भीशौर्यसंयुतः।
परित्यज्य पुरं यातः कोऽपि नो वेत्ति तं नृपम्॥४५॥
और इस प्रकार के वचन कहने के उपरांत ऋषि सौम्य राजमाता वैदर्भी तथा शौर्यसेन के साथ प्रतापपुर को त्यागकर कहाँ चले गए? महाराज! यह कोई भी नहीं जानता।
श्रुत्वा ध्यानपरो राजा निशश्वासाऽऽर्तवत् तदा।
तत्क्षणे दुःखसन्तप्तः क्रोधामर्षयुतोऽब्रुवीत्॥४६॥
यह सुनते ही श्री अग्रसेन भारी चिंता में डूब गए और शोकातुर होकर लम्बी-लम्बी सांसे भरने लगे। अत्यन्त दुःख से संतप्त होकर वे क्रोध और अमर्ष में भरकर मन ही मन बुदबुदाने लगे।
धिङ् मदीयमिदं राज्यं यत्र नाम्बा न चानुजः।
ताभ्यां विरहितं तद्वद् देहं चक्षुर्विवर्जितम्॥४७॥
माता वैदर्भी और अनुज शौर्यसेन से रहित मेरे ऐसे राज्य को धिक्कार है, क्योंकि उन दोनों से रहित यह राज्य नेत्रों से हीन शरीर की भांति शोभा से रहित प्रतीत हो रहा है।
कथं तयोस्त्वानयनं को हितं मे करिष्यति।
कं च पृच्छामि सुहृदं क उपायोऽत्र सम्भवः॥४८॥
वे सोचने लगे कि मैं किस हितैषी से पता लगाऊँ? (कि वे अभी कहाँ होंगे? कैसे होंगे?) किसे कहूँ कि तुम उन्हें ले आओ (जब यही ज्ञात नहीं कि वे कहाँ है?) कौन हमारा यह हितपूर्ण कार्य करेगा? किस प्रकार, किस उपाय से (यह कार्य) संभव होगा।
सन्दिदेश द्विजान् अग्रो वसु दत्त्वा च पुष्कलम्।
मृगयध्वं शौर्यमेनं वैदर्भी चैव मातरम्॥४९॥
अन्तोगत्वा महाराजा अग्रसेन ने ब्राह्मणों को प्रचुर मात्रा में धन देकर, यह संदेश दिया कि कृपया आप लोग (मेरे अनुज) शौर्यसेन तथा माता विदर्भनन्दिनी (भगवती देवी) की खोज करें।
कर्मणि प्रतिसम्पन्ने दास्यामि विपुलं वसु।
इत्युक्तास्ते विचिन्वन्तो ययुः सर्वे द्विजाः द्विशः॥५०॥
इस कार्य (माता तथा अनुज की खोज कर लेने पर) के हो जाने पर खोज करने वाले को विपुल संपत्ती प्रदान किए जाने की, महाराजा अग्रसेन द्वारा घोषणा किए जाने पर, अनेकों ब्राह्मण उन्हें खोजने सभी दिशाओं में निकल पड़े।
अग्रसेनस्तु सर्वस्य लोकस्य हितमात्मनः।
चिकिर्षन् सुमहातेजा रेमे पुरुषसत्तमः॥५१॥
जैमिनी जी कहते हैं— हे पुरुषश्रेष्ठ जनमेजय! महातेजस्वी अग्रसेन राज्य के सभी लोगों का और अपना हित प्रयत्नपूर्वक हर्ष और उत्साह से युक्त होकर करते थे।
तत्र प्रजा रेमिरेऽथ सुप्रीत्या जनमेजय!।
अवसत् धरणीपालांस्तापयन्स स्वतेजसा॥५२॥
हे महाप्राज्ञ जनमेजय! आनन्दप्रद महाराजा श्री अग्रसेन प्रजा के साथ सदैव आनन्द मग्न रहते थे। जिससे उनके इस तेज से अन्य नरेशों का हृदय ईर्ष्या के वशीभूत संतप्त रहता था।
॥ इति जैमिनीये जयभारते भविष्यपर्वणि अग्रोपाख्यानस्य यद्विरचितम् श्रीमदग्रभागवते दशमोऽध्यायः॥
॥ शुभं भवतु कल्याणम् ॥
महर्षि जैमिनी विरचित जयभारत के भविष्यपर्व के अग्रोपाख्यानम् के श्रीमद् अग्रभागवतम् स्वरूप का दसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।
यह शुभकारी आख्यान सबके लिये कल्याणकारी हो।