॥ श्री अग्र भागवत ॥
नवम अध्याय
पराक्रम
॥ जैमिनिरुवाच ॥
दत्त्वा वरान् महालक्ष्मीरग्रसेने प्रसादिनी।
यथा तथाऽद्भुतं कृत्स्नं व्याख्यातं हि मयाऽधुना॥१॥
जैमिनी जी कहते हैं— हे जनमेजय! श्री महालक्ष्मी ने प्रसन्न होकर जिस प्रकार श्री अग्रसेन को वरदान दिया, वह अत्यन्त अद्भुत वृतान्त मेरे द्वारा तुम्हें बताया जा चुका है।
शृण्वग्रसेनस्य कर्म वरयुक्तं विवर्धये।
यथाग्निः पवनोध्दूतः सुसूक्ष्मोऽपि महान् भवेत्॥२॥
हे परंतप! अब सुनिये! श्री अग्रसेन ने देवी द्वारा प्रदत्त उस वरदान को किस प्रकार अपने पराक्रम के द्वारा सफल किया? जैसे थोड़ी सी भी आग वायु का सहारा पाकर अग्नि का रूप धारण कर लेती है, उसी प्रकार श्री अग्रसेन ने भी महर्षि गर्ग का आश्रय प्राप्त कर महानता को प्राप्त किया।
सोऽभिगम्य मुनिं नत्वा वन्दनीयमुवाच ह।
प्राप्तः श्रियो वरो ह्येष तव मेऽनुग्रहः परः॥३॥
इस प्रकार श्री महालक्ष्मी की प्रसन्नता प्राप्त कर श्री अग्रसेन महामुनि गर्ग के पास पहुँचे और मस्तक झुकाकर प्रणाम करते हुए बोले— हे महामुने! आपकी महान् कृपा से ही मैंने श्री महालक्ष्मी का वरदान प्राप्त किया है।
॥ गार्ग्य उवाच ॥
एतत् कर्मफलं वत्स तपसश्च फलं ध्रुवम्।
सर्वार्थसिद्धिं लभते कृते सुकृतकर्मणि॥४॥
महर्षि गर्ग ने कहा— वत्स! यह तो तुम्हारे सत्कर्मों का फल है तथा अटल तपस्या का फल है। सुकर्म करके मनुष्य अपने कृत्यों से अपनी संपूर्ण कामनाएँ सिद्ध कर लेता है।
अपुत्राणां यथा लोका भवन्ति न सुखप्रदाः।
नृपतीनाममन्त्राणां चिरं राज्यं न सुस्थिरम्॥५॥
वत्स! जिस प्रकार पुत्रहीनों को कोई भी लोक सुखप्रद प्रतीत नहीं होते, वैसे ही योग्य मंत्रियों से रहित राजाओं का राज्य चिरकाल तक स्थिर नहीं रहता।
न यशः पुण्यहीनानां न सुखं परिवादिनाम्।
विना पराक्रमं कोऽपि यशस्वी न भविष्यति॥६॥
वत्स! जैसे पुण्यहीनों को यश नहीं मिलता, परनिन्दकों को सुख नहीं मिलता, उसी प्रकार पराक्रम के बिना कोई भी यशस्वी नहीं हो सकता।
प्राप्स्व वत्स परां कीर्तिम् इह लोके सुखं स्थिरम्।
दिवं प्राप्ता नृपाः कृत्वा परं लोकहितक्रियाम्॥७॥
हे वत्स! तुम इस लोक में अपनी परम कीर्ति स्थापित करने हेतु उचित प्रयत्न करो। पूर्वकाल में भी अनेकों राजाओं ने अनुपम लोकहितकारी कार्य करके ही दिव्यता को (परमकीर्ति तथा दिव्यलोक) पाया है।
॥ जैमिनिरुवाच ॥
एतच्छ्रुत्वा वचस्तस्य गार्ग्यस्यामिततेजसः।
उवाच दीनया वाचा त्वग्रसेनो ह्यनिर्वृतः॥८॥
जैमिनी जी कहते हैं— राजन जनमेजय! अमित तेजस्वी महर्षि गर्ग के इन वचनों को सुनकर निवार्णरुपी मनस्थिति को प्राप्त श्री अग्रसेन ने दीन वाणी में निवेदित किया।
॥ अग्रसेन उवाच ॥
न वित्तं विद्यते मेऽत्र राज्यं वित्तं विना न वै।
साम्राज्यं नैव पश्यामि सुहृदः समरे हताः॥९॥
श्री अग्रसेन ने कहा— महामुने! मेरे पास धन (वित्त) नहीं है और बिना धन के जनशक्ति संभव नहीं, राज्य हो नहीं सकता। इसके साथ ही मुझे अपना कोई सहायक भी दिखाई नहीं देता। सुहृदय पिताश्री तो समरांगण (महाभारत युद्ध) में ही वीरगति को प्राप्त हो चुके हैं।
स्वजनप्रातिकूल्येन वर्तितव्यं किमर्थिना।
किमत्रानन्तरं कार्यं तन्मे गदितुमर्हसि॥१०॥
प्रतिकूल हो चुके स्वजन काका कुन्द के व्यवहार व उनके राज्य अपहृत कर लेने की घटनाओं का विचार करने से क्या लाभ? (वे कोई राज्य तो लौटाने वाले हैं ही नहीं) ऐसी स्थिति में हे महर्षे! अब मेरा आगे क्या कर्तव्य है? (मुझे क्या करना चाहिए?) कृपया बताने की कृपा कीजिए।
॥ जैमिनिरुवाच ॥
ततोऽब्रवीद् गार्ग्यमुनिरग्रसेनं हसन्निव।
जैमिनी जी कहते हैं— श्री अग्रसेन के इस प्रकार वचनों को सुनकर तब मुनिवर गर्ग ने प्रसन्तापूर्वक श्री अग्रसेन को समझाते हुए कहा—
॥ गार्ग्य उवाच ॥
यथा चिन्तामणिं दत्त्वा कुन्दनेन तथा कृतम्॥११॥
महामुनि गर्ग ने कहा— वत्स! तुम्हारे चाचा कुन्द ने वैसा ही मूर्खतापूर्ण क्षुद्र कर्म किया है, जैसे कोई मनुष्य चिन्तामणि देकर बदले में कांच या कौड़ी ले ले। स्वयं अपकीर्ति लेकर तुम्हें तो जैसे सुयश की चिन्तामणि प्रदान कर दी है।
यथा बीजं विना क्षेत्रमुप्तं भवति निष्फलम्।
तथा पुरुषकारेण विना दैवं न सिध्यति॥१२॥
वत्स अग्रसेन! तुम्हें श्री महालक्ष्मी का वरदान प्राप्त हो ही चुका है। तथापि दैवकृपा भी पुरुषार्थ किये बिना उसी प्रकार सिद्ध नहीं हो सकती, जिस प्रकार बीज खेत में बोए बिना फलित नहीं हो सकता। अर्थात् बोए बिना बीज निष्फल ही रहता है, अतः दैवकृपा उपलब्ध होने पर भी उसकी सिद्धि हेतु समुचित कर्म करना तो नितांत आवश्यक ही है।
कृती सर्वत्र लभते प्रतिष्ठां दैवसंयुताम्।
प्राप्तं न कर्मणा सर्वं न दैवादकृतात्मना॥१३॥
वत्स! पुरुषार्थ पूर्ण कर्म करने वालों के प्रयत्नों (कर्मों) में दैव ही संयुक्त (सहायक) हो जाते हैं और अपने प्रयत्नों से वह पुरुषार्थी प्रतिष्ठा पाता है। इस प्रकार कर्म करने से वांच्छित सभी कुछ प्राप्त हो जाता है, किन्तु केवल भाग्य या दैव कृपा के भरोसे निष्क्रिय, अकर्मण्य बैठे रहने वाला कुछ भी उपलब्ध नहीं कर सकता।
अर्थो वा मित्रवर्गो वा ह्यैश्वर्यं वा कुलान्वितम्।
श्रीरन्यद् दुर्लभं भोक्तुं तथैवाकृतकर्मभिः॥१४॥
वत्स! जो पराक्रम पूर्ण कृत्य नहीं करते, वे धन, मित्रवर्ग, ऐश्वर्य तथा उत्तमकुल का उपभोग नहीं कर सकते और उनके लिए श्री, कीर्ति भी सदैव दुर्लभ ही रहती है।
कृतेऽपि पुरुषार्थे तद् दैवमेवानुवर्तते।
न दैवमकृते क्वापि कस्यचिद् दातुमर्हति॥१५॥
वत्स! पुरुषार्थ करने से ही दैव की अनुकूलता प्राप्त की जा सकती है। दैव तो पुरुषार्थी व्यक्तियों की ही सहायता करते हैं, किन्तु कर्महीन व अकर्मण्य रहने पर भाग्य में रहने पर भी दैव किसी को कुछ नहीं देते।
श्रुतवान् व्यासमुखतो महत्तस्य महाध्वरम्।
प्राक्केवलं शतं यज्ञान् स कृत्वा लब्धवान् वरम्॥१६॥
वत्स! पूर्वकाल में महाराजा मरुत्त ने जिस प्रकार सौ यज्ञ करके दिव्य वर की प्राप्ति की थी, मैंने व्यासजी के श्रीमुख से महाराजा मरुत्त के उस महत् पराक्रम का वृतान्त सुना था।
पुरा क्वाऽपि मरुत्तेन यागः एकः कृतोग्र वै।
दत्त्वा सकाञ्चनां भूमिं द्विजास्तत्राभितोषिताः॥१७॥
हे भगवतीनन्दन अग्र! पूर्वकाल में महाराज मरुत्त ने यहाँ भी एक महायज्ञ किया था। जिसमें उन्होंने सभी श्रेष्ठ ब्राह्मणों को विपुल दक्षिणादि से परितुष्ट किया था। उसमें से बहुत बड़ा स्वर्णकोष भूमि में दबा पड़ा है।
सत्यसन्धास्थितो यज्ञः सर्वयज्ञे विशिष्यते।
जातः सूर्यकुले तस्मिन् कुलदीपो भवानपि॥१८॥
वत्स! सभी यज्ञों में विशिष्ट (श्रेष्ठ) यज्ञ कर्म करके जिनने अपनी प्रतिज्ञा को सत्य कर दिखाया (ज्ञातव्य है कि महाराजा मरुत्त ने शत यज्ञ का संकल्प लिया तो इन्द्र भयभीत हो गए। उन्होंने देवगुरु बृहस्पति को राजा मरुत्त का यज्ञ नहीं करवाने के लिए राजी कर लिया, तब अपने संकल्प में दृढ़ महाराज मरुत्त ने बृहस्पति के भाई संवर्त मुनि को अपना ऋत्विज बनाकर सो यज्ञ के अपने संकल्प को पूर्ण किया था।) हे अग्रसेन! उन्हीं सूर्यकुल के महाराजा मरुत्त के यशस्वी वंश के तुम कुल दीपक हो।
समर्पितं धरायां तत् पतितं काञ्चनं महत्।
यन्नेतुमसमर्थास्ते विप्रा आसन् नृपार्पितम्॥१९॥
हे राजन्! महाराजा मरुत्त द्वारा समर्पित वह विपुल धन जिसे ब्राह्मण ले जाने में असमर्थ थे (महाराजा मरुत द्वारा विपुल धन ब्राह्मणों को यज्ञ की दक्षिणा स्वरूप प्रदान किया गया था, जिससे जितना संभव हुआ वे साथ ले गए, जो न ले जा सके) वह इस धरा के, अंचल में दबा पड़ा है, यहाँ विद्यमान है, तुम उसे ग्रहण करो।
॥ अग्रसेन उवाच ॥
धन्यो मरुत्तो राजाऽसौ येन यागस्तथाविधः।
कृतो बहुसुवर्णाढ्यो यत्र विप्राः सुतर्पिताः॥२०॥
श्री अग्रसेन ने कहा— महर्षे! धन्य हैं! वे महाराजा मरुत्त! जिन्होंने अत्याधिक स्वर्णदान से युक्त ऐसा महायज्ञ किया जिसमें उन्होंने तपस्वियों एवं ब्राह्मणों को विपुल दक्षिणा देकर संतुष्ट किया।
त्यक्तं विप्रैः सुवर्णं यत् कथं तदहमानये।
ब्राह्मणानां विशेषेण वित्तं दुःखतरं मम॥२१॥
ब्राह्मणों द्वारा ले जा सकने में असमर्थ होने के कारण तजे गए उस स्वर्ण को हे महामुने! मैं भला कैसे ले सकता हूँ? (क्षत्रिय कर्म तो दान देना कहा गया है, ब्राह्मणों का धन ग्रहण करना नहीं।) ब्राह्मणों का वह धन मेरे लिए विशेष रुप से कष्टकारी ही होगा।
मत्तः परो न निन्द्योऽन्यो भविष्यति नराधिप।
ब्रह्मस्वे यस्य नृपतेर्मतिर्भवति दारुणा॥२२॥
ऐसा करने पर हे महामुने! इस जगत् में भला मुझसे अधिक निन्दनीय राजा और कौन होगा?
ग्रहणान्मज्जयत्येनं शिलेवाम्भसि दुस्तरा।
प्रहसिष्यन्ति मां विप्रा मम वित्ते तथाविधे॥२३॥
हे महर्षे! जिस राजा की बुद्धि ब्राह्मणों के धन के अपहरण के लिए क्रूरता पूर्ण हो जाती है, उसे वह धन ग्रहण करने की प्रेरणा देने वाली बुद्धि जल में पड़ने वाली दुस्तर शिला की भांति गर्त में डुबो देती है। इस विधि से प्राप्त धन से मेरे द्वारा राज्य की संरचना करना तो उल्टा मेरी हंसी का ही कारण बनेगा।
तस्मान्न कुत्सितं कर्म करिष्यामि ध्रुवं मुने॥२४॥
अतः हे मुनिवर! कृपया आप ही बताइये, ऐसा कुत्सित कर्म मैं भला कैसे करूँ?
धिङ् मदीयमिदं राज्यं यत्र नाम्बा न चानुजः।
एका त्रपा मे महती मुञ्चतो मेऽश्रु शोकजम्॥२५॥
और फिर माताश्री तथा अनुज शौर्यसेन से रहित मेरे द्वारा इस प्रकार राज्य संरचना की कल्पना भी धिक्कारणीय ही है। महामुने वे वहाँ शोकजन्य अश्रु गिरा रहे होंगे, मेरे लिए तो यही एक अत्यन्त लज्जा की बात है।
सम्मार्जयितुमेकां हि न समर्थोऽस्मि तां त्रपाम्।
द्वितीयैषा महाभाग विप्रद्रव्याद् भविष्यति॥२६॥
हे महाभाग! मुनिवर! मैं उस एक लज्जा का ही मार्जन करने में समर्थ नहीं हो पा रहा हूँ, फिर ब्राह्मणों का द्रव्य ग्रहण करने से तो मेरे लिये दूसरी और अधिक लज्जा की बात होगी।
॥ गार्ग्य उवाच ॥
धन्योऽसि नृपशार्दूल सम्यगुक्तं त्वया वचः।
धरास्वं प्रति यां शङ्कां प्रकरोषि वृथा हि सा॥२७॥
महर्षि गर्ग ने कहा— हे राजसिंह! तुम धन्य हो। तुमने बहुत ही श्रेष्ठ बात की है; किन्तु ब्राह्मणों द्वारा त्याग दिये गए धरा में दबे पड़े उस धन को ग्रहण करने के संदर्भ में जो तुम्हारी शंका है, वह व्यर्थ है, निर्मूल है।
यदा त्यक्तं धनं तैर्हि स्वाम्यं तेषां तदा गतम्।
एष यत्नो मानवैरे न दोषस्ते भविष्यति॥२८॥
अग्र! ब्राह्मणों ने जिस समय उस धन का परित्याग किया, उसी समय उनका उस धन पर से स्वामित्व हट गया। धरती द्वारा धारण किए गए उस धन को मानव द्वारा प्रयत्न पूर्वक अर्जित करने में किसी भी प्रकार का कोई दोष नहीं है।
रामेण भूः पुरा दत्ता कश्यपाय महात्मने।
कथं गृह्णन्ति च महीम् राजानः पापभीरवः॥२९॥
वत्स! यदि ऐसा कोई दोष होता, तो पूर्वकाल में भगवान् परशुरामजी ने अपने शौर्य से अर्जित कर यह पृथ्वी महात्मा कश्यप को दान में दे दी थी, फिर पाप से भय करने वाले नरेश ब्राह्मण को दान में दी जा चुकी इस पृथ्वी को फिर कैसे धारण करते हैं?
दैत्यैर्जिता धरा चेयं दैत्येभ्यः क्षत्रियैर्जिता।
गतं स्वाम्यं च विप्राणां तस्माद् दोषो न विद्यते॥३०॥
वत्स अग्र! पहले इस पृथ्वी को दैत्यों ने जीता था, फिर दैत्यों से इसे क्षत्रियों ने जीता, इस प्रकार उस पर से ब्राह्मणों का अधिकार स्वयं ही समाप्त हो गया, अतः इस पृथ्वी को धारण करने में कोई दोष नहीं है।
यदा धराधिपत्यं हि प्राप्तं येन नृपेण च।
तदा तस्याखिलं वित्तं जायते नात्र संशयः॥३१॥
राजन्! जिस समय जिस राजा को धरा के जिस भाग का स्वामित्व प्राप्त होता है, उस समय उस पृथ्वी के (बाह्य तथा आंतरिक) समस्त धन पर उसका अधिकार होता है— इसमें कोई संदेह नहीं।
मन्त्रग्रामैः सुविहितैरौषधैश्च सुयोजितैः।
यत्नेन चानुकूलेन दैवमप्यनुलोम्यते॥३२॥
भली भांति किये गए मंत्र समूहों का जप, अच्छी तरह विधिवत् उपयोग में लाई गई औषधियों का सेवन तथा योग्य प्रयत्नों में दैवकृपा (दैवानुकूलता) निश्चित प्राप्त होती है।
तद् धनं त्वं समानीय कुरु राज्यस्य रक्षणम्।
इति ब्रुवाणो गर्गस्तम् आशिषाऽग्रमयोजयत्॥३३॥
अतः निर्मूल शंकाओं से विमुक्त होकर उस धन को प्राप्त कर तुम राज्य की उत्तमोत्तम संरचना करो। यह कहते हुए महर्षि गर्ग ने श्री अग्रसेन जी को सफलता का आशीर्वाद दिया।
ममाश्रमसमीपे हि मरुत्तस्यास्ति सा हि भूः।
राजन् सा वालुकापूर्णा दिशामावृत्य पश्चिमाम्॥३४॥
महर्षि गर्ग ने तब श्री अग्रसेन को उस स्थल की जानकारी देते हुए बताया—हे राजन्! मेरे आश्रम के समीप ही मरुप्रदेश की वह भूमि है, जो बालू से परिपूर्ण तथा पश्चिम दिशा में फैली हुई है।
आदौ प्राप्ता श्रीरियं ते ह्यभिषिक्तोऽनया भव।
पुरस्थान्यन्यरम्याणि मृगयस्व यथाक्रमम्॥३५॥
महर्षि गर्ग ने कहा— हे राजन्! इस आश्रम भू पर पहले चामर से संयुक्त होकर नृप–स्वरूप मेरे द्वारा अभिषेक को प्राप्त करो। फिर राज्यलक्ष्मी प्राप्त करने के उपरांत इस भूभाग में यहाँ सुरम्य राज्य की सरंचना हेतु प्रयत्न करो।
॥ जैमिनिरुवाच ॥
अथाभ्यषिञ्चदग्रं तं वेदविद्भिर्द्विजैर्मुनिः।
अभिषिक्तोऽभिरेजेऽथ श्रिया युक्तो महाबलः॥३६॥
जैमिनी जी कहते है— तदनंतर महर्षि गर्ग ने आश्रम के सभी वेदज्ञ द्विजों को साथ लेकर उस विमुक्त भूमि के राजा के रूप में श्रीमहालक्ष्मी की कृपा से युक्त महाबली अग्रसेन का अभिषेक कर दिया।
प्राप्यामितां धरां राजा तत्र सम्पूजितस्तदा।
सभाज्यमानो विप्रैश्च जयशब्दोत्तरेण च॥३७॥
इस प्रकार वहाँ राज्य की संरचना हेतु धरा प्राप्त कर श्री अग्रसेन जी ब्राह्मणों से सम्मानित हो जय जयकार के साथ सुशोभित होने लगे।
तर्पयित्वा महादेवम् आज्येन विधिवत् तदा।
मन्त्रसिद्धं चरुं कृत्वा पुरोधाः स ययौ किल॥३८॥
तत्पश्चात मुनियों द्वारा विधिपूर्वक संस्कारित घृत के द्वारा भगवान् महादेव (शिवजी) को तृप्त करके मंत्र सिद्ध चरु तैयार किया गया और तब श्री अग्रसेन भूदेव के समीप गए।
सर्वं स्विष्टतमं कृत्वा विधिवद् वेदपारगः।
किङ्कराणां ततः पश्चाच्चकार' बलिमुत्तमम्॥३९॥
तब वेदों के पारंगत विद्वान् ऋषियों ने वहाँ देवताओं को अत्यन्त प्रिय लगने वाले समस्त कर्म करके फिर भगवान् शिव के पार्षदों को उत्तम भेंट-पूजादि से संतुष्ट किया।
कृत्वा पूजां तु रुद्रस्य गणानां चैव सर्वशः।
ययौ गर्गम् पुरस्कृत्य नृपो रत्ननिधिं प्रति॥४०॥
गणपति सहित भगवान् शिव परिवार और उनके समस्त गण आदि का सब प्रकार से पूजन करके महर्षि गर्ग को सम्मुख करके राजा अग्रसेन उस स्थान पर गए, जहाँ रत्न एवं स्वर्ण राशि (धरा के भीतर) सरंक्षित थी।
तां धरां खानयामास बालुकार्णवपूरिताम्।
प्रत्यपद्यत रत्नानि विविधानि वसूनि च॥४१॥
तब वे अपार रेत के उन टीलों से युक्त धरा को खुदवाने लगे। वहाँ धरा के खनन से नाना प्रकार के रत्न तथा संपत्ती उपलब्ध हुई।
॥ जैमिनिरुवाच ॥
तस्मिन् बालुवनस्थाने सा पुर्याग्रेयनामिका।
अग्रसेनेन संसृष्टा रम्या पुण्यपुरोत्तमा॥४२॥
जैमिनी जी कहते हैं— बालु और वन से परिपूर्ण उसी स्थान पर राजा श्रीअग्रसेन ने एक रम्य पुरी का निमार्ण करवाया। जो पुण्यभू थी और अन्य पुरियों में श्रेष्ठ थी, वह पुरी आग्रेय के नाम से विख्यात हुई।
गर्गः प्रादाद् वरं तस्मै राजपुत्राय धीमते।
ददौ चास्याक्षयं वित्तं शत्रुभिश्चापराजयम्॥४३॥
जैमिनी जी कहते हैं— हे महाप्राज्ञ! धर्मज्ञ! जनमेजय! उस समय महर्षि गर्ग ने राजपुत्र महात्मा अग्रसेन को वरदान दिया कि तुम्हारे पास सदैव अक्षय धन व सम्पत्ति रहेगी एवं तुमसे शत्रु सदैव पराजित ही रहेंगें।
॥इति जैमिनीये जयभारते भविष्यपर्वणि अग्रोपाख्यानस्य यद्विरचितम् श्रीमदग्रभागवते नवमोऽध्यायः॥
॥ शुभं भवतु कल्याणम् ॥
महर्षि जैमिनी विरचित जयभारत के भविष्यपर्व के अग्रोपाख्यानम् के श्रीमद् अग्रभागवतम् स्वरूप का नौवां अध्याय पूर्ण हुआ।
यह शुभकारी आख्यान सबके लिये कल्याणकारी हो।