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॥श्री अग्र भागवत॥

 

बाईसवाँ अध्याय

 

दिशा

 

॥जैमिनिरुवाच॥

 

अविशेषेण सर्वेषाम् अग्रसेनोऽकरोद्धितम्। 

प्रीयतां दीयतां मुक्त्वा कोशं मृदु सुभाषितम्॥१॥

जैमिनी जी कहते हैं—हे धर्मज्ञ जनमेजय! महाराजा अग्रसेन समान रूप से सबके हित में लगे रहते थे। उनका मधुर वचन था सबको तृप्त एवं प्रसन्न किया जाय। राजकोष खोल दिये जाय, और सभी (याचकों) को खुले हाथों सहयोग दिया जाय।

 

रक्षणाद् अग्रराजस्य सत्यस्य परिपालनात्। 

शत्रूणां क्षपणाच्चैव स्वकर्मनिरताः प्रजाः॥२॥

महाराजा अग्रसेन अपने राज्य की प्रजा की रक्षा, सत्य का पालन, तथा मानवता के शत्रुओं का संहार करते थे। उनके इन कार्यों से निश्चिंत होकर प्रजावर्ग के सब लोग अपने-अपने कर्मों के पालन में संलग्न रहते थे।

 

सर्वारम्भा सुप्रवृत्ता गोरक्षा कर्षणं कृषिः। 

वाणिज्यं च विशेषेण सञ्जज्ञे राजकर्म तत्॥३॥

वहाँ गौरक्षा, कृषि, तथा वाणिज्य (उद्योग, व्यापार ) आदि सभी कार्य सुचारू रूप से होते थे, विशेषतः राज्य के प्रबंधको की सुव्यवस्था से ही यह सब कुछ उत्तम रूप से सम्पन्न होता था।

 

ज्वलिताम् अग्रसेनस्य श्रियं दृष्ट्वाऽथ दुर्नृपाः।

व्यथन्ते स्म हि सामर्षाः जीवन्ति स्म सुदुःखिताः॥४॥

महाराजा अग्रसेन की प्रदीप्त लक्ष्मी (यश, वैभव, वंश, ऐश्वर्य आदि) को देखकर पापपूर्ण हृदय वाले अन्य कुछ राजा व्यथित होकर ईर्ष्या करने लगे। वे अमर्ष से उत्पन्न दुःखपूर्ण जीवन जी रहे थे।

 

विवर्धयन्ति स्मोद्वेगं हासयन्ति च सुक्रियाः। 

व्यथयन्ति च तत्कीर्तिं राजानः पापचेतसः॥५॥

सभी लोकों में श्री अग्रसेन की बढ़ती हुई कीर्ति मानो उन पापपूर्ण मन वाले राजाओं के हृदय पर चोट पहुँचाते हुए विहंस रही थी। जिससे उनकी दशा उपहासपूर्ण होकर उन्हें दग्ध किये देती थी।

 

द्विधाचित्ताश्च शोकार्ताः सर्वे ते चैक्यमागताः। 

अग्रसेनवधोपायं मन्त्रयामासुरेकदा॥६॥

दुविधा में फँसे चित्त वाले, शोक से आतुर उन सभी राजाओं ने तब श्री अग्रसेन जी का वध करने की इच्छा से उपयुक्त उपाय सोचने हेतु एक साथ बैठकर मंत्रणा की।

 

॥नृपा ऊचुः॥

अयं कापुरुषो बालो ह्यग्रसेनो न बोधति। 

सर्वत्र सर्वदा क्षात्त्त्रं तस्मादेवं प्रभाषते॥७॥

उस मंत्रणा सभा में उपस्थित विभिन्न राजाओं में से किसी राजा ने कहा—राजा ने कहा—अग्रसेन मूढ़ पुरुष है या फिर वृद्ध होकर भी बाल बुद्धि है। वह क्षत्रियोंके महत्व को नहीं जानता, जो कि सर्वव्यापक है और स्थाई है इसीलिये उसने क्षत्रियत्वके सम्बन्ध में इस प्रकार अनुचित कहा है।

 

वचनात् वर्तनात् क्लीबप्रकृतिः कुलपांसनः। 

यथान्धो ह्यन्धमन्वीयात् तथाभूता ऋषीश्वराः॥८॥

अपने इस प्रकार के वचनों और व्यवहार से यह क्षत्रिय कुल को कलंकितकरने वाला अग्रसेन नपुंसकता की प्रकृति में स्थित हो गया है। साथ ही जैसे एक अन्धा दूसरे अन्धे के पीछे चलता है, वही स्थिति (धर्म के प्रति) अंधे हुए इन ऋषियों की भी हो गई है।

 

को हि धर्मिणमात्मानं ज्ञानाज्ञानविदां वरः।

मन्येताग्रो यथा मूर्खो वितथा धर्मवीक्षिता॥९॥

कौन ऐसा पुरुष होगा जो अपने को ज्ञानवानों में श्रेष्ठ और धर्मात्मा मानते हुए भी ऐसा मिथ्या धर्म और ऐसा क्षुद्रकर्म करेगा, जैसा धर्म पर दृष्टि रखते हुए भी अग्रसेन ने किया है।

 

को हि धर्मोऽस्ति चाग्रस्य का चाऽहिंसा वृथा क्रिया। 

यद् धारयति मोहाद् वा क्लीबत्वाद् वा न संशयः॥१०॥

राजाओं! अग्रसेन का धर्म क्या है? उसका यह 'अहिंसा धर्म' व्यर्थ का ढकोसला ही है। जिसे उसने मोहवश अपनी नपुंसकता के कारण धारण कर रखा है, इसमें संशय नहीं।

 

हन्यतां दुर्मतिर्ह्यग्रः पशुवत् साध्वयं नृपाः। 

सर्वैः समेत्य संरब्धैर्दह्यतां वा कटाग्निना॥११॥

राजाओं क्रोध में भरकर हम सब लोग मिलकर इस दुष्ट बुद्धि वाले अग्रसेन को पशु की भाँति गला दबाकर मार डालें अथवा घास फूस की आग में इसे जीते जी ही जला डालें।

 

॥जैमिनिरुवाच॥

ततश्च मालवो राजा यतेन्द्रः प्रोक्तवानिदम्।

युक्तं प्राप्तं रोहिताश्वप्रोक्तमग्रान् प्रभाषितम्॥१२॥

जैमिनी जी कहते हैं—तत्पश्चात मालव के राजा यतेन्द्र ने उस समय यह बात कही—राजाओं! रोहता के नरेश द्वारा अग्रसेन के विषय में जो कुछ कहा गया है, वह युक्ति संगत तो है ही अवसर के अनुकूल भी है।

 

आग्रेयं निहनिष्यामो ग्रहीष्यामश्च तद् धनम्। 

निश्चयस्त्वेष वै क्षिप्रमाज्ञापयत वाहिनीम्॥१३॥

हम लोग सब साथ मिलकर वहाँ चलकर शीघ्र ही उस 'आग्रेय' राज्य को तहस-नहस कर देंगे और वहाँ के विपुल धन पर अधिकार कर लेंगे। ऐसा उन सबने निश्चय कर सेना को शीघ्र प्रस्थान करने की आज्ञा दी।

 

परिवार्याग्रेयमस्य निवेशायोपचक्रिरे। 

वनानि समवेतानि सैन्यानां युद्धकाङ्क्षिणाम्॥१४॥

तदनंतर वे सब दुष्ट बुद्धि राजागण युद्ध की लालसा से एकत्रित होकर अपनी-अपनी सेना के साथ आग्रेय पुरी को चारों ओर से घेरकर वन में डेरा डालने की तैयारी करने लगे।

 

महत् सैन्यं स्थितं घोरं सशब्दं कालरुपधृक्। 

घोरैः किलकिलैः शब्दैः सिंहनादैश्च तर्जनैः॥१५॥

उस समय वहाँ एक बड़ी भयंकर सेना गर्जना करती हुई खड़ी हो गई, जिसका रूप काल के समान भयावना था। वे किलकारियाँ मार-मारकर सिंहनाद करने लगे, गर्जन-तर्जन व भयंकर शब्द करने लगे।

 

तैस्तदा वेष्टिता सापूरग्रसेनमहात्मनः। 

नानाशस्त्रप्रहरणैर्मोहलोभैर्यथा जगत्॥१६॥

जैमिनी जी कहते हैं—हे धर्मज्ञ जनमेजय! जिस तरह लोभ और मोह संसार को घेर लेते हैं, उसी तरह नानाप्रकार के अस्त्र-शस्त्रों को धारण किए हुए उन वीरों ने महामनस्वी अग्रसेन की उस पुरी को घेर लिया।

 

॥जैमिनिरुवाच॥

शौर्यसेनस्तदोवाच ह्यग्रसेनमिदं वचः। 

विभुर्भवान् सुपुत्रोऽहं सबन्धुश्च महामतिः॥१७॥

पद्मकेतुर्महातेजा सुषेणोऽपि च कीर्तिमान्। 

एते चान्ये संस्थिताश्च सर्वाग्रेऽद्य व्रजाम्यहम्॥१८॥

जैमिनी जी कहते है—हे जनमेजय! तब शौर्यसेन ने महाराजा अग्रसेन से इस प्रकार कहा—हे भवान्! यहाँ (अपने वीर) पुत्रों सहित मैं, सभी भाईयों के सहित महाबुद्धिमान् युवराज विभुसेन, एवं महातेजस्वी सेनापति पद्मकेतु, युद्ध कुशल महारथी सुषेन वर्मा तथा अन्य बहुत से वीर उपस्थित हैं। युद्ध के लिये आतुर आताताइयों की सेना के प्रतिकार हेतु आप आदेश दें। (अब मैं ही आगे बढता हूँ। मै इस हेतु सेना का नेतृत्व करने को तैयार हूँ।)

 

॥विभुसेन उवाच॥

शौर्यसेनवचः श्रुत्वा नमस्कृत्याब्रवीद् विभुः। 

कियत् सैन्यं? युवामेव प्रलयोत्पत्तिकारकौ॥१९॥

चाचा शौर्यसेन के इस प्रकार वचनों को सुनकर युवराज श्री विभुसेन महाराजा अग्रसेन तथा चाचा शौर्यसेन को प्रणाम करते हुए कहने लगे—भवान्! आप लोग तो संग्राम भूमि में प्रलय का दृश्य उत्पन्न कर देने वाले परम वीर हैं और फिर आपके योग्य वहाँ सेना ही कितनी है?

 

गच्छेद् यो मुखवातेन तूलतुल्यबलः पुरः। 

तत्कुतः सुमहत् सैन्यं प्रज्वलन् वडवानलः॥२०॥

विभुसेन ने कहा—हे महाराज! जिसका बल रुई के समान हो, जो सम्मुख आने पर मुँह की फूंक से उड़ जाने वाला हो, उसे जलाने के लिये धधकते हुए बड़वानल की क्या आवश्यकता?

 

स्वल्पशीकरवर्षेण यद् रजः परिशाम्यति। 

कुतो भूरिवर्षणं तन्नाशाय स्यात्तु कोपतः॥२१॥

जो धूल थोड़ी सी बूंदा-बांदी से ही शांत हो जाने वाली हो, उसके लिये वरुण को क्रोधपूर्वक जाने की क्या आवश्यकता?

 

बध्द्वाऽऽनयेऽद्य तान्राज्ञः आज्ञया भवतो ह्यहम्। 

एष गच्छामि स‌ङ्ग्रामे नाथ हन्मि तवाहितान्॥२२॥

आपकी आज्ञा पाकर मैं ही उन राजाओं को बाँधकर आपके समक्ष ला सकता हूँ। नाथ! देखिये आपकी स्वीकृति पाते ही मैं अभी रणक्षेत्र में आपके शत्रुओं पर प्रहार करने जा रहा हूँ।

 

॥जैमिनिरुवाच॥

दध्मौ शङ्खं महातेजा रथेनातीव वेगवान्।

पद्मव्यूहमदृष्ट्‌वैकः प्रायाद् रणविशारदः॥२३॥

जैमिनी जी कहते हैं—हे धर्मज्ञ जनमेजय! उस समय उस महातेजस्वी वीर को भयंकर गर्जना करते हुए रथ से आगे बढ़कर अपना शंख बजाते हुए, पद्मव्यूह को महत्व हीन समझते हुए उस रणकुशल विभुसेन को सबने आगे बढ़ते हुए देखा।

 

स तेषां ध्वनिमाकर्ण्य कालकल्पं सुदारुणम्। 

भाविना च विनाशेन निगीर्णो वाक्यमब्रवीत्॥२४॥

विभुसेन को अपने समक्ष देखकर तथा उसकी गर्जनाओं को सुनकर, वे जो काल के समान अत्यंत भयंकर हो गए थे, तब अपने भावी विनाश से ग्रसित होकर, किंतु उसे फटकारते हुए कहने लगे—

 

॥दिग्गजसेन उवाच॥

त्यजैतद् विपुलं रम्यं राज्यं च कुलपांसन। 

क्षात्रधर्मेण ते हीनं जीवितं न सुखप्रदम्॥२५॥

राजा दिग्गजसेन ने कहा—अरे ओ कुलविनाशक! तू अब इस रमणीय राज्य को छोड़ दे क्योंकि क्षत्रिय धर्म से रहित होने के कारण अब तेरा जीवन सुखप्रद (वीरतापूर्ण) नहीं रह गया है।

 

॥विभुरुवाच॥

मूढाः वैश्यत्वमस्माकं न क्लीबत्वं तु पौरुषम्। 

कथं भीतोऽसि मे क्षान्तिं दर्शयामि पराक्रमम्॥२६॥

विभुसेन ने कहा—मूर्खों! मेरा वैश्य तत्त्व कोई नपुंसकता नहीं अपितु पुरुषार्थपूर्ण कर्म है। तुम लोग (युद्ध के प्रारंभ होने के पूर्व ही) इस तरह भयभीत क्यों हो रहे हो। मैं अपनी क्षमा और पराक्रम दोनों ही तुम्हे दिखाऊँगा।

 

सङ्ग्राम एव चेन्मान्यः दुर्मते ते न शान्तता। 

संनद्धं विद्धि मां रौद्रं कस्ते त्राताद्य विद्यते॥२७॥

अरे दुर्मति ग्रसित नरेशों! यदि तुम्हे संग्राम ही अभीष्ट है, शांति नहीं तो मुझ भयंकर वीर को अब कवच धारण किए हुए युद्ध के लिये तैयार समझो। तुम तुरंत वार कर सकते हो। देखें! आज मुझसे तुम्हारी कौन रक्षा करता है?

 

॥जैमिनिरुवाच॥

एवं वदन्तं समरे चाह्वयन्तं विभुं तदा। 

अवेष्टयत् सैन्यमेतद् रथवारणसङ्कलम्॥२८॥

जैमिनी जी कहते हैं—हे महाप्राज्ञ जनमेजय! युद्ध भूमि में विभुसेन जब इस तरह उन्हें ललकार रहा था, तभी शत्रुओं के रथ और हाथियों के सैन्य समूहों ने उसे परिवेष्टित (घेर) कर लिया।

 

तृणैरावेष्टितो वह्निस्तानेव दहति ध्रुवम्। 

तद्वत् साधुर्महावीरस्तत् सैन्यमदहत् क्षणात्॥२९॥

जैसे घास-फूस से घिरी हुई आग निश्चय ही उसे जलाकर भस्म कर देती है, उसी तरह वह महावीर विभुसेन क्रोध में भरकर उस आततायी सेना को भस्म करने लगे।

 

सैन्यं प्रहतमप्रीतं भग्नं तत् परिपालितम्। 

चतुर्विधं सैन्यमेष जग्राह स्वनिकेतनम्॥३०॥

उन्होंने राजा दिग्गजसेन द्वारा संरक्षित उस सम्पूर्ण सेना को युद्धभूमि में नष्ट-भ्रष्ट करके कष्ट में डाल दिया और फिर अपनी सेना की तरह ही उनकी सेना को भी अपने अधिकार में ले लिया।

 

बाणैर्विमोहितान् वीरान् स्वपुरे हर्षितोऽनयत्। 

दिग्गजप्रमुखा वीरा मोहिताः शरवृष्टिभिः॥३१॥

विभुसेन की शर वृष्टि से दिग्गजसेन अन्य प्रमुख वीरों के साथ मूर्च्छित होकर गिर पड़ा और तब अपने बाणों से विमोहित (संज्ञा शून्य) हुए उन वीर नृपतियों को वीर विभुसेन हर्षपूर्वक अपने नगर में ले आये।

 

स आनयामास विभुः तदवस्थं च दिग्गजम्। 

स चाब्रवीत् शौर्यसेनं राजा नः कथ्यतामिति॥३२॥

आग्रेयं दासभावेन गतोऽहं पापचेतनः।

तब विभुसेन ने उसी अवस्था में आतातायी दिग्ग्जसेन को उनके साथियों सहित महाराज अग्रसेन के समक्ष उपस्थित किया। तथा चाचा शौर्यसेन को सम्बोधित करते हुए कहने लगे—भवान्! कृपया महाराज को सूचित कर दीजिये कि ये पापात्मा आततायी अब महाराजा श्री अग्रसेन के दास हो चुके हैं।

 

जातस्याग्रस्य वंशेऽस्मिन् माधव्याश्च सुतस्य च॥३३॥

जैमिनी जी कहते हैं—जनमेजय! श्री अग्रसेन के वंशज तथा महाप्राज्ञा माधवी देवी जैसी माता के पुत्र की जैसी बुद्धि और कर्म होना चाहिये, विभुसेन ने यहाँ उसी का परिचय दिया।

(युद्ध भूमि में आतताइयों का संहार करने की बजाय उनको संज्ञाशून्य कर उनका वध नहीं करना तथा सेना के व्यर्थ संहार के बदले उसे अपने संरक्षण में लेकर भय मुक्त करना, अपने माता पिता के गुणों के अनुकूल ही उनका यह योग्य कर्म था।)

 

या वै युक्ता मतिः कार्या सेयं प्रादर्शि मे विभो। 

तमुवाच ततो राजा रिपुं सप्रणयं वचः॥३४॥

जैमिनी जी कहते हैं—हे धर्मज्ञ जनमेजय! युवराज विभुसेन के इस प्रकार कहने पर उन विजित राजाओं से महाराजा श्री अग्रसेन ने प्रेमपूर्वक कहा—

 

॥अग्रसेन उवाच॥

अदासो गच्छ मुक्तोऽसि मैवं कार्षीः क्वचित् पुनः। 

धिगस्तु त्वामिदं क्षात्रं कर्म धर्मविरोधकम्॥३५॥

महाराजा श्री अग्रसेन ने कहा—राजन्! अब तुम दास नहीं रहे। जाओ! तुम्हें मुक्त किया जाता है। फिर कभी ऐसा घृणित कार्य न करना। तुम्हारे इस प्रकार (अन्यायपूर्ण) क्षत्रित्व को धिक्कार है। क्षत्रियों का धर्म आततायियों से रक्षा करना है, आततायी होना क्षत्रिय धर्म के सदैव विरुद्ध है।

 

धर्मे ते वर्धतां बुद्धिर्मा चाऽधर्मे मनः कृथाः। 

साश्वः सरथसैन्यस्त्वं स्वस्ति गच्छेरितो भवान्॥३६॥

हे राजन्! तुम्हारी बुद्धि उत्तरोत्तर धर्म में विकसित होती रहे। तुम्हारा मन कभी भी अधर्म में न लगे। आप अपने रथ, घोड़े तथा सेना सब कुशलतापूर्वक साथ ले जायँ।

 

॥दिग्गजसेन उवाच॥

क्षमस्व त्वं महाराज विज्ञातोऽस्यद्य भूभुजाम्। 

भवन्तमुपरुन्धानान् विराट् त्वं क्षन्तुमर्हसि॥३७॥

तब दिग्गजसेन ने कहा—राजन्! आप राजा नहीं, महाराजा हैं। अब तक हम सब नृपति अज्ञानता वश आपके वास्तविक स्वरूप को नहीं जानते थे इसलिये आपके प्रति अपराध कर बैठे। आप विराट् हैं। आप हमें क्षमा प्रदान करें।

 

॥अग्रसेन उवाच॥

न मे वैरं प्रसरति क्षणार्धमपि हे नृपाः। 

यद् गतं तद‌तिक्रान्तं शोच्यं तत् केन हेतुना॥३८॥

महाराजा श्री अग्रसेन ने कहा—नरपतियों मेरे हृदय में एक पल भी किसी के भी प्रति वैर भाव टिकता ही नहीं। जो बीत गया उस पर शोक किस लिये किया जाय?

 

॥जैमिनिरुवाच॥

एवमुक्तवा नरेशांस्तानाश्वास्याग्र उदारधीः।

क्षन्तव्यमेवेत्युवाच वीतवैरा भवन्त्विति॥३९॥

जैमिनी जी कहते हैं—हे महामनीषी जनमेजय! उन नरेशों से ऐसा कहकर उन्हें आश्वस्त करके महाराजा अग्रसेन ने पुनः कहा—'सभी वैरभाव का परित्याग कर निर्वेर हो जाएँ। मुझे तो यही प्रिय लगता है।

 

एवं वृतेऽथ लोकाश्च तस्मिन् पितृवदास्थिताः। 

न तस्य विद्यते द्वेष्टा ततोऽस्याजातशत्रुता॥४०॥

जैमिनी जी कहते हैं—हे धर्मज्ञ जनमेजय! उनके ऐसे व्यवहार के कारण ही सभी लोग उनके प्रति वैसा ही अनुराग रखने लगे, जैसे पुत्र अपने पिता के प्रति अनुरुक्त रहते हैं। महाराजा श्रीअग्रसेन से द्वेष रखने वाला कोई था ही नहीं; अतः वे 'अजातशत्रु' कहलाते थे।

 

॥इति जैमिनीये जयभारते भविष्यपर्वणि अग्रोपाख्यानस्य यद्विरचितम् श्रीमदग्रभागवते द्वाविंशोऽध्यायः॥ 

॥शुभं भवतु कल्याणम्॥

महर्षि जैमिनी विरचित जयभारत के भविष्यपर्व के अग्रोपाख्यानम् के श्रीमद् अग्रभागवतम् स्वरूप का बाइसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ। यह शुभकारी आख्यान सबके लिये कल्याणकारी हो।