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॥ श्री अग्र भागवत ॥

 

षष्ठम् अध्याय

 

संघर्ष

 

॥ जैमिनिरुवाच ॥
ततः काले दुरात्मा स दर्पाहङ्कारसंयुतः। 
आहूय वज्रसेनं तं स्वहितं वाक्यमब्रवीत्॥१॥

जैमिनी जी कहते हैं— इस प्रकार उस समय अहंकार से भरे हुए उस दुरात्मा कुन्दसेन ने अपने पुत्र वज्रसेन को बुलाकर अपने स्वार्थ पूर्ण ये वचन कहे—

 

॥ कुन्दसेन उवाच ॥
अभिषेकस्य सम्भारान् क्षत्तरानय मा चिरम्। 
आहूयन्तां च विद्वांसः पुण्याहं वाच्यतां च तैः॥२॥

कुन्दसेन ने कहा— प्रियपुत्र! तुम शीघ्र ही अभिषेक की सामग्री लाओ, उसमें विलम्ब नहीं होना चाहिये। वत्स! पुण्यवाचन करने के लिये पुरोहित स्वरूप किसी को कुछ प्रलोभन आदि देकर बुला लो।

 

सेवामुख्यांश्च मगधांश्चारणांश्च विशेषतः। 
मुक्तावलीश्च मुकुटं हस्ताभरणमानय॥३॥

हमारे मुख्य सेवकों, मागधों और चारणों को विशेष रूप से बुलाओ। वत्स! तुम राजमुकुट, छत्र, मोतियों की मालाएँ तथा हाथ के आभूषण भी ले आओ।

 

अभिषेकोदकक्लिन्नं सर्वाभरणभूषितम्। 
अभिषिक्तं च मामद्य त्वं सूनो कर्तुमर्हसि॥४॥

मुझे सभी आभूषणों से विभूषित करो। अभिषेक की अभिलाषा से आकुल मैं स्व शरीर के जल (पसीने) से भीग चुका हूँ। अब तुम्हें विलम्ब किये बिना मुझे शीघ्र ही अभिषेक जल से अभिषिक्त करना चाहिये।

 

॥ जैमिनिरुवाच ॥
एवमुक्त्वा कुन्दसेनस्त्वरयामास तं तदा। 
उक्तं सर्वं वज्रसेनः कारयामास सत्वरः॥५॥

जैमिनी जी कहते हैं— इतना कहकर कुन्दसेन ने वज्रसेन को शीघ्रता करने के लिए प्रेरित किया। कुन्दसेन के द्वारा जैसा कहा गया था, वज्रसेन ने वैसा ही उसी समय सब पूर्ण कर दिया।

 

उपविष्टः कुन्दसेनो राजा मत्तो महामदः। 
स तु पीत्वा वरं पानं मदिराक्रान्तलोचनः॥६॥

जब कुन्दसेन प्रतापपुर के राजसिंहासन पर बैठा तो वह दुर्लभ राज्य प्राप्त कर लेने के मद से तो उन्मत्त था ही, विशिष्ट मादक रस (मदिरा) का पान कर लेने से उसके नेत्र और अधिक लाल हो गए।

 

ततो वादित्रनृत्याभ्यामुपातिष्ठन्त चाङ्गनाः। 
गीतैश्च स्तुतिसंयुक्तैः प्रीत्या तमुपजग्मिरे॥७॥

तदनंतर नृत्यांगनाएँ उसके पास आईं और वाद्य, नृत्य, गीत एवं स्तुति प्रशंसा के द्वारा उन लोगों का मनोरंजन करने लगीं।

 

वेषं स‌ङ्क्षिप्तमाधाय रक्तेनैकेन वाससा। 
चित्तप्रसादने युक्ताः पुंसां वामविलोचनाः॥८॥

नृत्यांगनाओं ने ऐसे पारदर्शीवेश धारण कर रखे थे, जो देखने मात्र से किसी भी पुरुष को उन्मत्त बना सकते थे। वे कमल लोचनाएँ पुरुषों के चित्त को प्रसन्न करने में संलग्न थीं।

 

महाकटितटश्रोण्यः कम्पमानैः पयोधरैः। 
कटाक्षहावमाधुर्यैश्चेतोबुद्धिमनोहरैः॥९॥

उनके कटिप्रदेश और नितम्ब विशाल थे। नृत्य करते समय उनके उन्नत स्तन कम्पायमान हो रहे थे। उनके कटाक्ष हावभाव तथा माधुर्य आदि मन बुद्धि एवं चित्त की सम्पूर्ण सद्वृत्तियों का हरण कर रहे थे।

 

मत्तास्तस्य सभायां ते मदनेन मदेन च। 
अन्ये पौरजनाश्चैवममन्यन्ताग्रभक्तितः॥१०॥

इस प्रकार कुन्दसेन की उस सभा में उपस्थित सभी लोग जब 'त्रि' मद (राजमद, सुरामद, काममद) से उन्मत्त हो रहे थे, तब अन्य पुरवासी, जिन्हे कुन्दसेन के इस कुकृत्य से, घृणा हो रही थी, वे संकट ग्रस्त श्री अग्रसेन के विषय में हित चिन्तन कर रहे थे।

 

॥ जैमिनिरुवाच ॥
स चापश्यदमात्यं स्वसापतं पलितं कृशम् 
भग्नोत्साहं क्रियात्मानमग्रसेनोऽन्यतः स्थितम्॥११॥

जैमिनी जी कहते हैं— (दूसरी ओर बंदीगृह में) उसी समय श्री अग्रसेन ने एक श्यामवर्णी आमात्य (कारागार मंत्री) को वहाँ आता हुआ देखा, जो अत्यंत कृशकाय तथा उत्साह भग्न होने से निरुत्साही तथा निष्क्रिय सा प्रतीत हो रहा था।

 

॥ अमात्य उवाच ॥
अहो धिक् कुन्दसेनस्य बुद्धिर्जाताऽसमञ्जसा। 
स्वराज्यस्य विनाशाय कारितं येन दुष्कृतम्॥१२॥

(वहाँ आकर श्री अग्रसेन से आमात्य ने कहा—) अहो! कुन्द धिक्कार है! कुन्दसेन की बुद्धि पूर्णतः विकृत हो गई है, जिसने स्वयं अपने राज्य के विनाश के लिये इस प्रकार दुष्कृत्य किया।

 

अतः कष्टतरं किं वा द्रष्टव्यं मे भविष्यति। 
यतः पश्याम्यद्य सूर्यान् तमसा कृतबन्धनान्॥१३॥

हाँ! इससे अधिक और कष्टकर क्या बात देखने में आएगी, कि मैं आज सूर्य को अंधकार के बंधन में बंधा हुआ देख रहा हूँ।

 

पितामहः सखा चासीदुपकारी प्रियश्च मे। 
तेनाहं सह सङ्गम्य सुचिरं वत्स पालितः॥१४॥

वत्स! अग्रसेन! तुम्हारे पितामह (महाराज वृहत्सेन) मेरे प्रिय सखा थे, उनके मुझ पर अनन्त उपकार हैं। विभो! मैं उनके सानिध्य में गुरुकुल में बहुत दिनों तक साथ रहा।

 

बाल्यात् पिता वल्लभस्ते प्रियवादी प्रियङ्करः। 
कुन्देनैवं विनिकृतः कश्मलं मेऽभवन्महत्॥१५॥

वत्स बचपन से ही तुम्हारे पिता वल्लभसेन मुझसे सदा प्रियवचन बोलते और मेरे प्रियकारी कार्य करते थे। आज कुन्द द्वारा इस तरह दुष्कृत्य किया जाते देख मेरा हृदय क्षोभ से भर गया।

 

विपत्काले धैर्यमाप्य प्रतिकारो विचिन्त्यताम्। 
विपन्नमुद्धरामि त्वां क्षमे सत्येन ते शपे॥१६॥

वत्स! विपत्ति काल में धैर्य का आश्रय लेकर विपत्ति के विनाश की युक्ति विचारना चाहिये। मैं सत्य की सौगन्ध खाकर (शपथ लेकर) कहता हूँ कि आज मैं तुम्हें इस विपत्ति से अवश्य उबारूंगा।

 

॥ जैमिनिरुवाच ॥
तच्छ्रुत्वा सुप्रियं वाक्यं पितृस्नेहात् प्रजल्पितम्। 
अग्रसेनमनस्तप्तं कारुण्येनाभिपूरितम्॥१७॥

जैमिनी जी कहते हैं— इस प्रकार आमात्य के द्वारा कहे गए पितृ स्नेह से युक्त वचनों को सुनकर श्री अग्रसेन का संतप्त हृदय करुणा से भर गया और वे दीन हृदय हो गए।

 

॥ अग्रसेन उवाच ॥
स्वाभाविकं तु यद् दैवं भाग्येनैवाभिजायते।तद‌कृत्रिमसौहार्दमापत्स्वपि न मुञ्चति॥१८॥

श्री अग्रसेन ने कहा— हे तात! (इस संकट के समय) आप देव स्वरूप स्वयं ही भाग्यवश ही मिल गए। स्वाभाविक निश्छल स्नेह तो भाग्य से ही मिलता है, जो कि विपत्ति के क्षणों में भी नहीं छूटता।

 

॥ आमात्य उवाच ॥
प्रकृतिः स्वामिनं त्यक्त्वा समृद्धाऽपि न जीवति। 
वत्साग्रसेन त्वं स्वामी रक्षणीयोऽसि सर्वथा॥१९॥

आमात्य ने कहा— वत्स! स्वामी से रहित नारी तथा राजा से रहित प्रजा कितनी भी समृद्ध हो, सुख से जीवित नहीं रह सकती। हे अग्रसेन! अब तुम ही इस प्रतापपुर के स्वामी हो, अतः सर्वथा रक्षा के योग्य हो, अर्थात् मंत्री व सेवकों के द्वारा अपने राजा की रक्षा की जानी ही चाहिये। 

 

कर्मणा येन केनाऽपि मृदुना दारुणेन वा। 
उद्धरेत् दीनमात्मानं समर्थों धर्ममाचरेत्॥२०॥

वत्स! नीतिशास्त्रों का अभिमत है– राजा यदि संकट में हो तो मृदुल या भयंकर, जिस किसी प्रकार से संभव हो, वैसा कर्म करके पहले उस दुरावस्था से अपना उद्धार करें, फिर पुनः समर्थ होने पर धर्मानुकूल आचरण करें ।

 

न संशयमानारुह्य नरो भद्राणि पश्यति। 
संशयं पुनरारुह्य यदि जीवति पश्यति॥२१॥

वत्स! कष्ट सहे बिना मनुष्य कल्याण के दर्शन नहीं करता, संघर्ष जीवन को अत्यधिक उज्जवल बना देता है। प्राणों का संकट झेल कर भी यदि कोई जीवित रह जाता है, तो वह निश्चित ही अपना विकास देखता है।

 

परप्रज्ञां विजानाति यश्चात्मानं स रक्षति। 
प्रतिघातं तदा कुर्यादापदं निस्तरेद् यथा॥२२॥

वत्स! जो शत्रु की बुद्धि को समझ लेता है, और अपनी रक्षा का उपाय करता है, वही जीवित रहता है। शत्रु के आघात से बचने का जो समयानुकूल उपयुक्त उपाय हो, वही उसे करना चाहिये।

 

अत्र स्थितमविज्ञातमलक्षितमहाबिलम्। 
अहमेव विजानामि कथं तत् संवृताननम्॥२३॥

वत्स अग्रसेन! यहाँ दिखाई न देने वाली सर्वथा अज्ञात सम्पूर्ण सुरंग है, जिसका मुख (मुख्यद्वार) बंद है, वह यहाँ भूमि के किस भाग में है, यह बात (तुम्हारे पितामह वृहत्सेन का अत्यंत विश्वास पात्र होने के कारण) केवल मैं ही जानता हूँ।

 

कारादियुक् ततोऽन्यत्र प्रयातुं समयो ह्ययम्। 
वञ्चनीयो नृशंसात्मा कालं मन्ये पलायने॥२४॥

मेरी राय में तुम्हारा यहाँ से भाग निकलने का यही उपयुक्त अवसर है। अतः तुम्हारा तुरंत ही कारागार से भाग निकलना ही उचित है।

 

॥ अग्रसेन उवाच ॥
यथा पितुस्तथा नस्त्वं निर्विशेषोऽस्म्यहं त्वयि। 
पलायनाद् वरं मृत्युः किं मुधा मलिनं यशः॥२५॥

श्री अग्रसेन ने कहा— हे तात! आप जैसे पिताश्री के लिये आदरणीय और विश्वसनीय थे, वैसे ही मेरे लिये भी हैं। किन्तु आपने मेरे जीवन रक्षण के लिये जो उपाय सुझाया है, वह मुझे रुचिकर नहीं। भवान्! मेरा मत है कि प्राणों के लिये भाग जाने से तो मरना श्रेष्ठ है। व्यर्थ ही यश को मलिन क्यों किया जाए?

 

॥ अमात्य उवाच ॥
आपदस्तरणे प्राणान् धारयेद् येन केन वा।
सर्वमावृत्य कर्तव्यं तं धर्ममनुकुर्वता॥२६॥

आमात्य ने कहा— वत्स! जिस उपाय से भी आपत्ति से छुटकारा मिले और प्राणों की रक्षा हो सके, वही मार्ग स्वीकार करके उस उपाय को काम में लाना चाहिये। आपत्ति काल में यही निश्चय ही धर्मपूर्ण आचरण है। (यही आपद्धर्म है।)

 

॥ अग्रसेन उवाच ॥
विना मात्रा विना भ्रात्रा धिग् इदं मम जीवनम्।
न जीवनं प्रीतिपदं यदप्यन्यार्जितं धनम्॥२७॥

श्री अग्रसेन ने कहा— किन्तु हे तात! माता तथा अनुज शौर्यसेन को अनाचारियों के आधीन छोड़कर उनसे रहित मेरे द्वारा स्वयं के प्राण बचाकर भाग जाने से शेष ऐसे जीवन को धिक्कार है। मुझे अब पुरुषार्थ के अतिरिक्त अन्य प्रकार से अपने जीवन की रक्षा करने में कोई प्रसन्नता प्रतीत नहीं होती।

 

॥ अमात्य उवाच ॥
पुरोहितेन कर्तव्यं कृतं मात्रादिमोक्षणम्। 
जनन्या सह शौर्येण निर्गतं राज्यमन्दिरात्॥२८॥

तब आमात्य ने कहा— हे राजन्! (आप माता तथा अनुज की ओर से निश्चिंत रहें।) आपकी माताश्री को शौर्यसेन सहित राजमंदिर से निकलवा कर राजपुरोहित (पुर का हित चाहने वाला = पुरोहित) ने उन्हें मुक्त कराने का कार्य अपना कर्तव्य जानकर पहले ही पूर्ण कर लिया है।

 

सुखेन ते पाल्यमानाः सन्ति ते विगतज्वराः। 
नित्यं संरक्षणं कार्यं राज्ञो विषयवासिभिः॥२९॥

राजन्! वे (माता एवं अनुज) लोग पुरोहित से रक्षित सुख से निकल चुके हैं, आप उनकी ओर से चिंता छोड़िये। राज्य में रहने वालों के लिए अपने राजा का प्रिय करना तो उनका कर्तव्य ही है।

 

उत्तिष्ठ व्रज भद्रं ते कार्यं कुर्वविषादतः। 
धृतिं गृह्णीष्व मा शत्रून् शोचन् त्वं नन्दयिष्यसि॥३०॥

तुम्हारा भला हो प्रिय राजन्! धैर्य धारण करो। शोक करके तो तुम शत्रुओं का ही हर्ष बढ़ाओगे। अतः उठो! और विषाद को छोड़कर, शीघ्र ही मेरे द्वारा कहा गया कर्म करो।

 

सुमन्त्रितं सुविक्रान्तं सुयुद्धं सुपलायितम्। 
आपत्तिकाले यद् योग्यं कुर्यान्न तु विचारयेत्॥३१॥

वत्स! आपत्तिकाल उपस्थित होने पर योग्य सलाह, श्रेष्ठ पौरुष्य, डटकर युद्ध तथा छिपकर पलायन, जब जहाँ जो योग्य हो, वह ही करना चाहिये। इसमें अधिक विचार नहीं करना चाहिये।

 

यथाऽऽत्थं त्वं महाराज तत् करिष्यामि ते वचः।

हे राजन्! अब आप मुझे जैसा आदेश देंगे, मैं आपके उन्हीं वचनों को (आदेश मानकर) पालन करूँगा।

 

॥ अग्रसेन उवाच ॥
गुरोरनुमतिं प्राप्य सर्वान् कामानवाप्नुयाम्॥३२॥

श्री अग्रसेन ने कहा— तात! गुरुजनों (वृद्धों) की अनुमति प्राप्त करके तो मनुष्य संपूर्ण कामनाओं को पा लेता है। अर्थात् आप मेरे गुरुजन हैं, आपकी मति के अनुकूल कार्य निश्चय ही मेरे लिये सर्वथा हितकारी ही होगा।

 

॥ जैमिनिरुवाच ॥
तदाऽमात्येन संछिन्नम् अग्रस्याखिलबन्धनम्। 
बिलेन तेन निर्गत्य जग्मतुस्तावलक्षितौ॥३३॥

जैमिनी जी कहते हैं— तब अमात्य ने श्री अग्रसेन के सभी बंधन काट दिये और तब श्री अग्रसेन तुरंत ही सुरंग मार्ग से निकलकर दूर चले गए। उन्हें वहाँ से निकलते हुए कोई भी देख नहीं पाया।

 

पलायितो ह्यग्रसेनः इति कोलाहलोऽभवत्। 
श्रुत्वा भटाः सर्वतश्च तत्र सत्वरमागताः॥३४॥

और तब वहाँ बंदीगृह में 'अग्रसेन भाग गया, अग्रसेन भाग गया' इस प्रकार का कोलाहल सभी ओर होने लगा। जिसे सुनकर चारों ओर से अनेकों सैनिक वहाँ आ गए।

 

यथोक्तं कृतवान् सर्वम् अमात्यस्त्वरितो भृशम्। 
स्वामी पुण्यवता येन देहत्यागेन रक्षितः॥३५॥

आमात्य ने जैसा कहा था सब कुछ शीघ्र ही वैसा ही कर दिखाया। निश्चय ही वह पुण्यवान् था, जिसने अपने प्राण देकर भी अपने स्वामी की रक्षा की।

 

॥ जनमेजय उवाच ॥ 
सत्यमेव गुणग्राही स्वामी भाग्येन लभ्यते। 
शुचिर्दक्षोऽ‌नुरक्तश्च मन्ये भृत्योऽपि दुर्लभः॥३६॥

तब महाराज जनमेजय ने कहा— महर्षे! यह सत्य है कि गुणग्राही स्वामी भाग्य से ही मिलता है, किन्तु मैं तो ये समझता हूँ कि स्वच्छ हृदयी, कार्य कुशल और स्वामिभक्त सेवक भी कठिनाई से ही मिलता है।

 

विपत्तिषु च ये शूराः स्वाम्यर्थे त्यक्तजीविताः। 
भर्तृभक्ताः स्वर्गसुखं महासत्वा हि भुञ्जते॥३७॥

'विपत्तिकाल में जो वीर पुरुष अपने स्वामी के हितार्थ अपने प्राणों तक का उत्सर्ग कर देते हैं, वे स्वामिभक्त महापुरुष अनंतकाल तक स्वर्ग सुखों का भोग करें।'

 

॥ जैमिनिरुवाच ॥
विक्रोशन्तोऽद्रवन् दासाः सर्वे कुन्दस्य मन्दिरम्। 
कुन्दसेनस्य तत् सर्वमाचख्युश्चाग्रकर्म तत्॥३८॥

जैमिनी जी कहते हैं— श्री अग्रसेन की विमुक्ति का समाचार पाते ही सभी दासगण कोलाहल व शोरगुल मचाते हुए कुन्दसेन के महल की ओर दौड़ पड़े तथा रागरंग में न्यस्त कुन्दसेन से श्री अग्रसेन के इस उपक्रम की सारी कथा कह सुनाई।

 

तेषां श्रुत्वा स चागर्जत् मदसंरक्तलोचनः। 
गर्जन्तं तं तथा सर्वेऽप्यन्वपद्यन्त तं तदा॥३९॥

तब उन भृत्यों की यह बात सुनकर उन्माद से रक्तिम नेत्रों वाले उस कुन्दसेन ने अहंकार पूर्ण तीव्र गर्जना की। जिसे सुनकर वहाँ उनके सभी सेवकों ने उसका अनुसरण किया।

 

॥ कुन्दसेन उवाच ॥
प्रतापपुरतः शीघ्रं बलं समभिवर्तताम्। 
वनञ्चेदं सर्वतश्च बलौघैः परिवार्यताम्॥४०॥

कुन्दसेन बोला- प्रतापपुर की सम्पूर्ण सेना शीघ्र ही आक्रमण करे और उस वन को सभी ओर से सैनिक समूह घेर लें।

 

अग्र एवं क्षिप्रमेष समन्ताद् वेष्टितो बलैः। 
वज्रप्रपाताप्रतिमं प्राप्नोतु तुमुलं भयम्॥४१॥

इस प्रकार हमारी सेनाओं से सभी ओर से घिरा हुआ वह अग्रसेन शीघ्र ही इस तरह के भयंकर भय को प्राप्त करे, मानो उस पर भीषण वज्र का आघात हो रहा हो।

 

॥ जैमिनिरुवाच ॥ 
कुन्दसेनवचः श्रुत्वा सैनिका राजशासनात्। 
तद्वनं वेष्टयामासुः समुद्राः धरणीमिव॥४२॥

जैमिनी जी कहते हैं— कुन्दसेन के आदेश को सुनकर राजाज्ञा से राज्य सैनिकों ने उस वन को उसी तरह चारों ओर से घेर लिया, जिस प्रकार समुद्र धरती को घेरे हुए है।

 

॥ कुन्दसेन उवाच ॥ 
शुष्ककाष्ठैस्तृणैर्वेष्ट्यं सपदीदं वनोत्तमम्। 
अग्निना दीपयिष्यामि ह्यग्रसेनोऽत्र दह्यताम्॥४३॥

कुन्दसेन ने कहा— वन में सूखे काष्ठों, लकड़ों एवं फूस तृणों को संग्रहीत करके इस उत्तम वन में सभी ओर से आग लगा दी जाए, जिससे अग्रसेन वन ही में भस्म हो जाए।

 

॥ जैमिनिरुवाच ॥
ददुस्ते पावकं तत्र यथाऽऽदेशस्तथा कृतम्। 
सोऽनलः पवनायस्तो दह्यमानो महोल्कवत्॥४४॥

जैमिनी जी कहते हैं— इसके उपरान्त कुन्द का जो उद्देश्य था, उसी के अनुरूप सैनिकों ने वहाँ वन में आग लगा दी। वायु के सहारे बढ़कर अग्नि वन को इस प्रकार जलाने लगी जैसे मानों महा उल्काएँ प्रज्वलित हो रही हों।

 

धातुभिः पच्यमानैश्च ज्वलद्भिश्चैव पादपैः। 
उद्भ्रान्तश्वापदाऽरौत्सीत् तुद्यमाना वनेश्वरी॥४५॥

वहाँ प्रज्वलित अग्नि से पकती हुई धातुओं, जलते हुए वृक्षों तथा घबराए हुए जन्तुओं से युक्त वह 'वनश्री' ऐसी प्रतीत हो रही थी, मानो व्यथा से पीड़ित होकर रो पड़ी हो।

 

स पर्वतगुहामेकां भयादस्मादलक्षितः। 
अग्रसेनोऽविशत् श्रान्तपावकेन व्यमुच्यत॥४६॥

उस समय थके मांदे श्री अग्रसेन ने वहाँ पर्वत की एक गुफा में औरों की दृष्टि से अलक्षित छिपे रहकर उस जलते हुए वन की तीव्र अग्नि के भयंकर कष्ट से छुटकारा पाया।

 

धूम्रभारैरनालक्ष्य पावकेनभितापितम्। 
विविक्तमभवत् सैन्यं परावृत्तमहारथम्॥४७॥

वहाँ उस जलते हुए वन में उठते हुए धुएं के भार से देखना भी असंभव हो गया। अग्नि के ताप से संतप्त होकर उनकी सारी सेना पीछे हटते हुए वहाँ से दूर हो गई। विशाल रथ पीछे की ओर लौट पड़े।

 

द्रवत्सु सर्वसैन्येष्वनङ्गपालो महाद्युतिः। 
स्मृत्वा वल्लभसम्बन्धम् अग्रमेवान्ववर्तत॥४८॥

इस प्रकार जब वहाँ से सभी सैन्यकर्मी भागने लगे, तब महातेजस्वी अनंगपाल श्री वल्लभसेन के साथ अपने पूर्व संबंधो का स्मरण करके वहाँ रुक गये तथा वह श्री अग्रसेन को परिलक्षित कर उनके पास पहुँच गये।

 

॥ अनङ्गपाल उवाच ॥
अहं पितृष्वसुर्भर्ता त्वं हि मे दयितः परम्। 
दुर्बुद्धेः कुन्दसेनस्य त्यक्तो बन्धो मयाऽद्य हि॥४९॥

अनंगपाल ने कहा— वत्स अग्रसेन! मैं तुम्हारी बुआ का पति, तुम्हारा फूफा हूँ। तुम मेरे परम प्रिय हो। दुर्बुद्धि कुन्द की बुद्धि मंद हो गई है, भ्रष्ट हो गई है, अतः अब मैंने उसका परित्याग कर दिया है।

 

यावत् नैष पुरं याति दर्शयिष्यति किल्बिषम्। 
तदिमां संत्यजाशु त्वं महीं हतनराकुलाम्॥५०॥

वह दुष्ट अभी नगर की ओर नहीं लौट रहा है, अतः वह रुककर पापपूर्ण कृत्य की पुनः चेष्टा कर सकता है, इसलिये हे वत्स! यह भूमि जो अब मृत तथा आकुलों से भरी हुई है, तुम अब इसका शीघ्र ही परित्याग कर दो।

 

॥ जनमेजय उवाच ॥
वनस्य दह्यमानस्य महर्षे किं नु कारणम्?।
किमर्थमग्रसेनं न दहत्यग्निः प्रचक्ष्व में॥५१॥

तब सहज जिज्ञासा वश महाराजा जनमेजय ने पूछा— हे महर्षे! इस प्रकार उस प्रज्वलित वन के जल जाने पर भी ऐसा क्या कारण था कि अग्नि ने श्री अग्रसेन को दग्ध नहीं किया? हे ब्रह्मर्षे! कृपया मुझ जिज्ञासु को अवश्य बताइयेगा?

 

॥ जैमिनिरुवाच ॥
दैवयोगेनैव वह्नेरभूद् वायोर्निवर्तनम्। 
विभीषणगृहं त्यक्त्वा लङ्काया समभूद्यथा॥५२॥

जैमिनी जी ने कहा— हे महाप्राज्ञ जनमेजय! दैव योग से वायु के वेग से अग्नि का रुख श्री अग्रसेन की ओर से दूसरी ओर पलट जाने से उस गुफा में श्री अग्रसेन पूर्णतः सुरक्षित रहे। जिस प्रकार सारी लंका के जल जाने पर भी विभीषण का घर सुरक्षित बच गया था उसी प्रकार यह भी असंभव नहीं था।

 

अग्रसेनो ययौ वीरः खड्गचर्मधरो युवा। 
कालो नूनं हि सर्वेषामयं नो भविता किल॥५३॥

और तब सैनिकों ने देखा कि युवा महान् शूरवीर अग्रसेन ढाल तथा तलवार धारण किये हुए आ रहे हैं। तो वे आपस में कहने लगे ये निश्चय ही हम सब लोगों के लिये काल स्वरूप होंगे। अब हमें इस लोक में कोई भी नहीं बचा सकता।

 

इति जल्पन्ति वै सर्वे सैनिका भयविह्वलाः। 
ध्वजाः कणकणायन्ते द्रुमा वातेरिता यथा॥५४॥

इस प्रकार वे सभी सैनिक भय से व्याकुल होकर बातें कर ही रहे थे, कि वायु के झकोरों से ध्वजाएँ, वृक्षों के पातों की तरह खड़खड़ाने लगीं।

 

कोशेभ्यश्च पृथग्‌भूताः स्वयमेवासयो ययुः।
क्षणात् प्रशान्ते धूम्रेऽग्नावयं सन्ददृशुर्भटाः॥५५॥

तलवारें स्वयं ही म्यान से बाहर निकल पड़ीं। क्षण भर बाद धुआं जब शांत हुआ तो वीरों ने श्री अग्रसेन को फिर देखा।

 

ततश्च शतशः शूराः वज्रस्याग्रमवारयन्। 
तिष्ठ तिष्ठेति चोक्त्वा तं विव्याध दशभिः शरैः॥५६॥

तब वज्रसेन के साथ सैकड़ों वीरों ने श्री अग्रसेन को बढ़ने से रोका। 'खड़ा रह', 'खड़ा रह' इस प्रकार कहते हुए वज्रसेन ने श्री अग्रसेन पर दस बाणों का प्रहार किया।

 

संसक्तमतितेजोभिस्तमेकं ददृशुर्जनाः। 
शतं च मनुजव्याघ्रा गजाः सिंहशिशुं यथा॥५७॥ 

जैसे शिशु सिंह भी सैकड़ों हाथियों से भिड़ जाता है, उसी प्रकार श्री वल्ल्भसुत तेजस्वी अग्रसेन उन नर व्याघ्रों से अकेले ही युद्ध कर रहे थे।

 

नीतिलक्ष्यतया तस्य शौर्येण स पराक्रमे। 
बभूव सदृशः कश्चिदग्रस्याग्रे न लाघवे॥५८॥

लक्ष्य वेधने, शौर्य प्रकट करने, पराक्रम दिखाने, अस्त्र ज्ञान प्रदर्शित करने तथा तलवार के हाथों की फुर्ती में यहाँ कोई भी वीर श्री अग्रसेन की समानता नहीं कर सका।

 

स प्रगृह्य महाघोरं निस्त्रिंशवरमायसम्। 
पदातिस्तूर्णमागत्य स्थस्थं कुन्दमत्यगात्॥५९॥

तब वीर श्रेष्ठ श्री अग्रसेन तुरंत ही अनंगपाल से उपलब्ध कठोर लोहे से बनी अत्यंत भयंकर तलवार हाथ में लिये पैदल ही रथ पर आरूढ़ कुन्दसेन की ओर बढ़े।

 

भ्रान्तावरणनिस्त्रिंशं कालोत्सृष्टमिवान्तकम्। 
दीप्यमानमिवादित्यं मत्तवारणविक्रमम्॥६०॥

हाथ में तीक्ष्ण तलवार लिये श्री अग्रसेन सूर्य के समान दीप्तिमान, तथा वेगशाली जलप्रवाह की भांति गतिशील और काल की भेजी हुई मृत्यु के समान महाकाल जान पड़ते थे। 

 

तत् सारथेः शिरः कायाज्जहार प्रहसन्निव।
रथं च तिलशः कृत्वा तान् हत्वा पार्ष्णिसारथीन्॥६१॥

तब मुस्कुराते हुए श्री अग्रसेन ने कुन्द के सारथी के सिर को धड़ से काट गिराया। उसके रथ के तिल के समान टुकड़े-टुकड़े कर दिये। पार्श्व रक्षकों को मार डाला। 

 

चिच्छेदैकेन घातेन हस्तं कुन्दस्य दुर्मतेः। 
दुष्टे तथाविधे तस्मिन् हाहाकारो महानभूत्॥६२॥

श्री अग्रसेन के एक ही आघात ने दुरात्मा कुन्दसेन के हाथ को कतर डाला। यह देखकर वहाँ सेना में हाहाकार मच गया।

 

तस्मिन् हतेऽनङ्गपाले संघर्षे लोमहर्षणे। 
कुन्दसेनस्य सैन्यं तत् प्रायशो विमुखीकृतम्॥६३॥

इस अतिरोमांचकारी संघर्ष में यद्यपि श्री अग्रसेन के हित संरक्षक श्री अनंगपाल वीरगति को प्राप्त हो गए, तथापि कुन्दसेन अपनी सेना के साथ तभी उस संघर्ष से विमुख होकर भाग गया।

 

अग्रः प्रतस्थे तु वनं वेगेनोत्तीर्य स क्वचित् 
सिंहद्वीपिरुरुव्याघ्रमहिषर्क्षगणैर्युतम्॥६४॥

जैमिनी जी कहते हैं— तब उस ज्वलित वन को वेग से पार करते हुए श्री अग्रसेन आगे बढ़े। वह वन सिंह, चीते, रुरु मृग, व्याघ्र, जंगली भैसों आदि से युक्त था।

 

म्लेच्छानां सेवितं स्थानं दरीश्चाद्भुतदर्शनाः।
स ददर्श बहुन् भीमान् पिशाचोरगदं‌ष्ट्रिणः॥६५॥

जैमिनी जी कहते हैं— उस वन में उन्हें अद्‌भुत कंदराएँ दिखी, जिनमें म्लेच्छ निवास करते थे। उन्हें वहाँ बहुत भयानक रूप वाले पिशाच और नाग भी दिखाई दिये।

 

गत्वा प्रकृष्टमध्वानमुत्तरन्तं नदीं तदा। 
कूर्मग्राहझषाकीर्णां विपुलद्वीपशोभिताम्॥६६॥

इस तरह बहुत दूर तक मार्ग तय कर लेने के पश्चात् श्री अग्रसेन ने (प्रतापपुर राज्य की सीमा) नदी को पार किया, जो मगरमच्छ, कछुओं और मछलियों से व्याप्त थी तथा टापुओं से सुशोभित हो रही थी।

 

विवेश बालुकारण्यं मार्गेण विषमेन च। 
जहर्ष विस्मितो दृष्ट्वा स्वर्णवर्णमहाशिलाम्॥६७॥

तब विषम मार्गों को पार कर श्री अग्रसेन ने समतल मार्ग को धारण कर बालुका वन में प्रवेश किया, वहाँ वे स्वर्णकांति के समान एक स्वर्णिम विशाल शिला को देखकर अत्यंत विस्मित हुए।

 

स शोकार्तः कृशो वर्णः पांसुध्वस्तशिरोरुहः। 
तत्र श्रान्तिपरीताङ्गः शिलातलमथाश्रयत्॥६८॥

शोक से पीड़ित, दुःख से कृशित, उदास, उनके अंग-अंग में पीड़ा व्याप्त हो रही थी, और सिर के बालों में धूल भर गई थी तब वे थककर वहाँ एक शिला के तल में बैठ गए।

 

स तद् राज्यापहरणं सुहृदाञ्च वियोजनम्। 
वने च तत्परिध्वंसं स्मृत्वा चिन्तामुपेयिवान्॥६९॥

और तब राज्य के अपहरण, सुहृदयों से रहित, वन में प्राप्त हुए नानाप्रकार के क्लेशों का विचार करते हुए वे अत्यंत चिंता ग्रसित हो गए।

 

॥ जनमेजय उवाच ॥
अतीव मोह‌मायाति मनश्च परिभूयते। 
निशाम्य तस्य तद् दुःखमिमां चापद‌मीदृशीम् ॥ ७० ॥

जनमेजय जी बोले— महर्षे! श्री अग्रसेन जी के इस दुःख और भयंकर विपत्ति का विचार कर मैं अत्यंत मोह से ग्रसित हुआ जा रहा हूँ, और मेरा मन भी उनके इस दुःखद प्रसंग से अत्यंत पीड़ित हो रहा है। हे महामुने! उनके इस दुःख को सुनकर मेरा मन भी दुःखी हो गया है।

 

॥ जैमिनिरुवाच ॥
अत्राप्युदाहरन्तीमां गाथां पारीक्षिताऽऽशृणु। 
ईश्वरस्य वशे लोका न तिष्ठन्त्यात्मनो वशे॥७१॥

जैमिनी जी कहते हैं— हे महात्मा जनमेजय! दुःख और विपत्ति इस विषय में प्रायः लोग प्राचीन इतिहास का उदाहरण देते हैं, जिसमें कहा गया है कि "सब लोग ईश्वर के वश में हैं, कोई भी स्वाधीन नहीं है।" जैसी प्रभु की इच्छा।

 

॥इति जैमिनीये जयभारते भविष्यपर्वणि अग्रोपाख्यानस्य यद्विरचितम् श्रीमदग्रभागवते षष्ठोऽध्यायः॥
॥ शुभं भवतु कल्याणम्॥
 
महर्षि जैमिनी विरचित जयभारत के भविष्यपर्व के अग्रोपाख्यानम् के श्रीमद् अग्रभागवतम् स्वरूप का छटवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।
यह शुभकारी आख्यान सबके लिये कल्याणकारी हो।