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॥श्री नारायणी चरित मानस॥

 

॥श्री राणी सत्यै नमः॥

 

श्री नारायणी चरित मानस

卐    ॐ    卐

 

-: द्वितीय स्कन्ध :-

 

दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः
स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि॥
दारिद्र्यदुःखभयहारिणि का त्वदन्या 
सर्वोपकारकरणाय सदाऽऽर्द्रचित्ता॥

 

॥भाषा-टीका॥

 

माँ दुर्गे! आप स्मरण करने से सब प्राणियों का भय हर लेती हैं और स्वस्थ पुरुषों द्वारा चिन्तन करने पर उन्हें परम कल्याणमयी बुद्धि प्रदान करती हैं। दुःख, दरिद्रता और भय हरने वाली देवी! आपके सिवा दूसरा कौन है, जिसका चित्त सबका उपकार करने के लिये सदा ही दयार्द्र रहता हो॥

 

॥चौपाई॥

एक डोकवा गाँव सुहाना। 
पुरवासी हरि भगत सुजाना॥
गुरसामल व्यापार प्रधाना। 
वैश्य जाति का पुरुष सुजाना॥
विनयवान, सुंदर, गुणशीला। 
अर्द्धांगिनि सुजान, सुशीला॥
 
॥दोहा॥
 
पत्नी सुलोचनी, सुमुखी, पति में दृढ़ विश्वास। 
पति अनुकूला प्रेम दृढ़, हरि पद अति विश्वास॥१॥
 
॥चौपाई॥
 
अनधन के भण्डार भरे थे। 
सब विधि वैश्य भरे पूरे थे॥
गौ, ब्राह्मण गुरु की सेवा से। 
गुरसामल प्रसन्न थे मन से॥
दयावान सुंदर मति धीरा। 
गौरवर्ण था पुष्ट शरीरा॥
मिर्ची का धन्धा करते थे। 
संतों की सेवा करते थे॥
 
॥दोहा॥
 
कथा सत्य भगवान की, घर बैठाई आय।
द्विज वर से सुनने लगे, दोनों चित्त लगाय॥२॥
 
॥चौपाई॥
 
की आरती अति हरषाकर। 
दरस दिया भगवन ने आकर॥
शंख, चक्र, अरु गदा विराजे। 
कमल नाल इक हाथ में साजे॥
मोर मुकुट मनि जड़ित सुहाये। 
मृग लोचनि मूरत मन भाये॥
गल बैजन्ती माल विराजे। 
कांधे बीच जनेउ साजे॥
विप्र चरण वक्षःस्थल सोहे। 
पीताम्बरी रुचिर मन मोहे॥
कोटिक काम लजावन हारे। 
चकित भये दंपति बिचारे॥
हाथ जोड़ कर वन्दन कीन्हा। 
आशीर्वाद प्रभु ने दीन्हा॥
मांगहु जो मन भाय तुम्हारे। 
कुछ भी नहीं अदेय हमारे॥
गुरसामल दोउ हाथ पसारी। 
बोले वचन सुनहुँ असुरारी॥
सकल भांति हम भये सुखारे। 
दर्शन कर भगवंत तुम्हारे॥
हाथ जोड़ बोली सेठानी। 
परम प्रसन्न प्रभू को जानी॥
आशा एक यही असुरारी। 
बालक खेले गोद हमारी॥
एवमस्तु कह कृपा निधाना। 
दंपति हृदय परम सुख माना॥
महाभारत सब कथा सुनाई। 
जनमेगी कन्या घर आई॥
आशीर्वाद देय भगवंता। 
अंतर्ध्यान भये श्री कंता॥
सुदिन सुमंगल अवसरु आनि। 
गर्भ कियो धारण सेठानी॥
जब नाराणी गर्भहिं आई। 
मन में मात बहुत हरषाई॥
गुरसामल भी अति हरषाये। 
विप्र बुला सस्नेह जिमाये॥ 
सब प्रकार विप्रन्ह को खुश कर। 
द्विज आशीष लई जी भरकर॥
बहु प्रकार दक्षिणा दिवाई। 
ब्राह्मण विदा किये सिरु नाई॥
एहि विधि कछुक काल चलि गयऊ। 
प्रकट भवानी अवसर भयऊ॥
सम्वत् तेरस सौ अड़तीसा। 
परम पुनीत पवन सुत दिवसा॥
बीत गई अष्टमी सुहाई। 
कार्तिक शुक्ला नवमी आई॥
मध्य निशा की बेला आई। 
प्रगट भई नाराणी बाई॥
बरसइ सुमन जय ध्वनि छाई। 
भेर दुन्दुभी गगन सुहाई॥
 
॥छंद॥
 
भई प्रकट भवानी सब गुणखानी। 
रूप राशि अरु तेज लिये॥
 
भक्तन सुखराशी घट-घट वासी।
मुख पर तेज प्रकाश लिए॥
 
माता हरषाई दासी बुलाई। 
गुरसामल को खबर करी॥
 
कन्या जब देखी रूप विशेषी। 
मन में बहुत उमंग करी॥
 
नर नारी डोकवा ग्राम निवासी। 
सब मिल जय जय कार करी॥
 
करि विनय विशाला देव कृपाला। 
सुमन वृष्टि नभ जाय करी॥
 
नर वेश बनाकर देवन्ह आए। 
दे दर्शन आशीष दई॥
 
कलियुग में सत की देवी है।
शिव शंकर ने आशीष दई॥
 
एहि भांति जनम उत्सव भयो भारी। 
निज निज धाम सभी आये॥
 
यह चरित जे गावहि सती पद पावहि। 
"रमाकांत" मस्तक नाये॥
 
भई प्रकट भवानी सब गुणखानी। 
रूप राशि अरु तेज लिये॥
 
॥दोहा॥
 
गृह-गृह बाज बधाव शुभ, प्रगट भई सती मात। 
हरषवंत सब नारि नर, प्रेम न हृदय समात॥३॥
 
॥चौपाई॥
 
गुरसामल मन में हरसाये। 
अनधन वस्त्र खूब बँटवाये॥
थी संतान प्रथम दंपति के। 
दिये जलाये घर में घी के॥ 
सुंदर सुता लखी महतारी। 
तेरे मुख पर मैं बलिहारी॥
डोकव गाँव के लोग लुगाई। 
देखि सुकन्या खुशी मनाई॥
समय जानि द्विज आयसु दीन्हा। 
चूड़ाकरण कर्म सब कीन्हा॥
नाम करण कर अवसर जानी। 
वैश्य बोलि पठये द्विज ज्ञानी॥
कन्या के है नाम अनेका। 
परम विचित्र एक से एका॥
तदपि नाम इक कहऊँ बखानी। 
सुंदर नाम धरो 'नाराणी'॥
अमर सुहागन सुता तुम्हारी। 
वैश्य न झूठी बात हमारी॥
रूप राशि शोभा की खानी। 
गुरसामल तेरी नाराणी॥
जग में ऊँचा नाम करेगी। 
भक्तों के भण्डार भरेगी॥
ऐहि विधि बहुत देहि आशीषा। 
विप्र गवन कीन्हो निज देशा॥
 
॥दोहा॥
 
सब विधि सबहिं प्रसन्न करी, दम्पति परम सुजान।
सुता प्रेम, हरि भगति में, लगा दियो निज ध्यान॥४॥
 
॥चौपाई॥
 
एक बार कियो चरित अपारा। 
पाय न सकी मात भी पारा॥
दूध पिलाय रही थी माता। 
सुन्यो मात बछड़ा रंभाता॥
बछड़ा गाय एक संग देखी। 
दूध पिलाती गैया देखी॥
छोड़ बालिका माता धाई। 
बछड़ा गाय तुंरत छुड़ाई॥
माता अचरज में घिर आई। 
केवल थे बछड़ा नहिं गाई॥
उधर बालिका रुदन मचाये। 
वांय-वांय कह मात बुलाये॥
तुरत मात शिशु पहिं जब आई। 
दूध जले की गंध समाई॥
पटक शिशु को माता धाई। 
आगी जाकर तुरत बुझाई॥
दूध पड्यो ठंडो मेरी माई। 
गंध जले की कैसे आई॥
तुरत सती अग्नि प्रगटाई। 
डर गई माता होश गंवाई॥
 
॥दोहा॥
 
एहि विधि चरित अनेक कर, बचपन लियो बुलाय। 
पाँच बरस की उमर में, विद्या पढ़ने जाय॥५॥
 
॥चौपाई॥
 
गुरु गृह जाइ गणेश मनाई। 
लगी पढ़न शारद सिरुनाई॥
जो-जो गुरु अनुशासन दीन्हा। 
तुरत सीख नाराणी लीन्हा॥
आप सीख सखियन समुझाये। 
भांति-भांति के ज्ञान बताये॥
चारों वेद तुरत पढ़ डारे। 
भगवद्‌गीता के गुण सारे॥
विद्या पढ़ गुरु शीश नवाई। 
नाराणी अपने घर आई॥
एक चरित मैं कहूँ बखानी। 
जेहि विधि डाकिन दूर भगानी॥
डाकिनि एक गांव में आई। 
छोटे बालक हर ले जाई॥
नरनारी थे बहुत दुखारी। 
नाराणी ने बात बिचारी॥
अंधी कर डाकिनी भगाई। 
सुखी भये सब लोग लुगाई॥
मात पिता आज्ञा अनुसरही। 
नाना विधि पूजा नित करही॥
विष्णु सहस्र जपे नितनामा। 
नित उठकर पितु मात प्रणामा॥
बाल्मीक, तुलसी रामायण। 
नियमित करती थी पारायण॥
पूरब जन्म कथा चित आई। 
जब महाभारत ग्रंथ उठाई॥
सुमिरि कथा व्याकुलता जागी। 
मन में ज्योत सत्य की जागी॥
नाशवान नहिं आनी जानी। 
हुयो ज्ञान मन में नाराणी॥
 
॥दोहा॥
 
जालीराम दिवान है, उनके घर में जाय।
अभिमन्यु ने जनम लिया, तनधन नाम धराय॥६॥
 
॥चौपाई॥
 
पति पहचान चित्त हरसाया।
पारवती का ध्यान लगाया॥
गणपति मात, प्रिया शंकर की। 
आश पूर्ण करो मेरे मन की॥
माता आश यही है मन की। 
जनम जनम दासी तनधन की॥
प्रगट होय दर्शन सती दीन्हा। 
सिर पर हाथ फेर वर दीन्हा॥
नाराणी आशीष हमारी। 
पूजहीं मनोकामना थारी॥
सतयुग सावित्री प्रगटाई। 
त्रेता सीता सती कहाई॥
एहि प्रकार कलयुग के मांई। 
नाराणी तेरा नाम सुहाई॥
आशीर्वाद देय कर अम्बा। 
अन्तर्ध्यान भई जगदम्बा॥
मन भावति आशीषा पाई। 
हरि भक्ति में चित्त लगाई॥
कार्य करे नित मंगल कारी। 
मात पिता लखि होइ सुखारी॥
जेहि विधि होइ सुखी पुरवासी। 
वही चरित करती सुखराशी॥
नाराणी ने कला दिखाई। 
सुख सम्पति घर घर में छाई॥
 
॥दोहा॥
 
एहि प्रकार बचपन गया, कन्या हुई किशोर। 
गुरसामल ढूंढण लगे, सुन्दर वर चहुँ ओर॥७॥ 
 
जनम चरित जो नित पढ़े, सती पद शीश नवाय। 
पुत्र, पौत्र, जस, धन बढ़े, 'रमाकान्त' जस गाय॥८॥