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भावार्थ :
श्रीभगवान्ने कहा—हे अर्जुन! इस संसारको अविनाशी वृक्ष कहा गया है, जिसकी जड़ें ऊपरकी ओर हैं और शाखाएँ नीचेकी ओर तथा इस वृक्षके पत्ते वैदिक स्तोत्र है, जो इस अविनाशी वृक्षको जानता है वही वेदोंका जानकार है॥1॥
भावार्थ :
इस संसाररूपी वृक्षकी समस्त योनियाँरूपी शाखाएँ नीचे और ऊपर सभी ओर फैली हुई हैं, इस वृक्षकी शाखाएँ प्रकृतिके तीनों गुणोंद्वारा विकसित होती है, इस वृक्षकी इन्द्रिय-विषयरूपी कोंपलें है, इस वृक्षकी जड़ोंका विस्तार नीचेकी ओर भी होता है जो कि सकाम-कर्मरूपसे मनुष्योंके लिये फलरूपी बन्धन उत्पन्न करती हैं॥2॥
भावार्थ :
इस संसाररूपी वृक्षके वास्तविक स्वरूपका अनुभव इस जगत्में नहीं किया जा सकता है क्योंकि न तो इसका आदि है और न ही इसका अन्त है और न ही इसका कोई आधार ही है, अत्यन्त दृढ़तासे स्थित इस वृक्षको केवल वैराग्यरूपी हथियारके द्वारा ही काटा जा सकता है॥3॥
भावार्थ :
वैराग्य रूपी हथियारसे काटनेके बाद मनुष्यको उस परम-लक्ष्य (परमात्मा)-के मार्गकी खोज करनी चाहिये, जिस मार्गपर पहुँचा हुआ मनुष्य इस संसारमें फिर कभी वापस नही लौटता है, फिर मनुष्यको उस परमात्माके शरणागत हो जाना चाहिये, जिस परमात्मासे इस आदि-रहित संसाररूपी वृक्षकी उत्पत्ति और विस्तार होता है॥4॥
भावार्थ :
जो मनुष्य मान-प्रतिष्ठा और मोहसे मुक्त है तथा जिसने सांसारिक विषयोंमें लिप्त मनुष्योंकी संगतिको त्याग दिया है, जो निरन्तर परमात्माके स्वरूपमें स्थित रहता है, जिसकी सांसारिक कामनाएँ पूर्ण रूपसे समाप्त हो चुकी है और जिसका सुख-दुःख नामका भेद समाप्त हो गया है ऎसा मोहसे मुक्त हुआ मनुष्य उस अविनाशी परम-पद (परम-धाम) को प्राप्त करता हैं॥5॥
भावार्थ :
उस परम-धामको न तो सूर्य प्रकाशित करता है, न चन्द्रमा प्रकाशित करता है और न ही अग्नि प्रकाशित करती है, जहाँ पहुँचकर कोई भी मनुष्य इस संसारमें वापस नहीं आता है वही मेरा परम-धाम है॥6॥
भावार्थ :
हे अर्जुन! संसारमें प्रत्येक शरीरमें स्थित जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है, जो कि मन सहित छहों इन्द्रियोंके द्वारा प्रकृतिके अधीन होकर कार्य करता है॥7॥
भावार्थ :
शरीरका स्वामी जीवात्मा छहों इन्द्रियोंके कार्योंको संस्काररूपमें ग्रहण करके एक शरीरका त्याग करके दूसरे शरीरमें उसी प्रकार चला जाता है जिस प्रकार वायु गन्धको एक स्थानसे ग्रहण करके दूसरे स्थानमें ले जाती है॥8॥
भावार्थ :
इस प्रकार दूसरे शरीरमें स्थित होकर जीवात्मा कान, आँख, त्वचा, जीभ, नाक और मनकी सहायतासे ही विषयोंका भोग करता है॥9॥
भावार्थ :
जीवात्मा शरीरका किस प्रकार त्याग कर सकती है, किस प्रकार शरीरमें स्थित रहती है और किस प्रकार प्रकृतिके गुणोंके अधीन होकर विषयोंका भोग करती है, मूर्ख मनुष्य कभी भी इस प्रक्रियाको नहीं देख पाते हैं केवल वही मनुष्य देख पाते हैं जिनकी आँखें ज्ञानके प्रकाशसे प्रकाशित हो गयी हैं॥10॥
भावार्थ :
योगके अभ्यासमें प्रयत्नशील मनुष्य ही अपने हृदयमें स्थित इस आत्माको देख सकते हैं, किन्तु जो मनुष्य योगके अभ्यासमें नहीं लगे हैं ऐसे अज्ञानी प्रयत्न करते रहनेपर भी इस आत्माको नहीं देख पाते हैं॥11॥
भावार्थ :
हे अर्जुन! जो प्रकाश सूर्यमें स्थित है जिससे समस्त संसार प्रकाशित होता है, जो प्रकाश चन्द्रमामें स्थित है और जो प्रकाश अग्निमें स्थित है, उस प्रकाशको तू मुझसे ही उत्पन्न समझ॥12॥
भावार्थ :
मैं ही प्रत्येक लोकमें प्रवेश करके अपनी शक्तिसे सभी प्राणियोंको धारण करता हूँ और मैं ही चन्द्रमाके रूपसे वनस्पतियोंमें जीवन-रस बनकर समस्त प्राणीयोंका पोषण करता हूँ॥13॥
भावार्थ :
मैं ही पाचन-अग्निके रूपमें समस्त जीवोंके शरीरमें स्थित रहता हूँ, मैं ही प्राण वायु और अपान वायुको संतुलित रखते हुए चार प्रकारके (चबानेवाले, पीनेवाले, चाटनेवाले और चूसनेवाले) अन्नोंको पचाता हूँ॥14॥
भावार्थ :
मैं ही समस्त जीवोंके हृदयमें आत्मारूपमें स्थित हूँ, मेरे द्वारा ही जीवको वास्तविक स्वरूपकी स्मृति, विस्मृति और ज्ञान होता है, मैं ही समस्त वेदोंके द्वारा जानने योग्य हूँ, मुझसे ही समस्त वेद उत्पन्न होते हैं और मैं ही समस्त वेदोंको जाननेवाला हूँ॥15॥
क्षर, अक्षर, पुरुषोत्तमका विश्लेषण
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भावार्थ :
हे अर्जुन! संसारमें दो प्रकारके ही जीव होते हैं एक नाशवान (क्षर) और दूसरे अविनाशी (अक्षर), इनमें समस्त जीवोंके शरीर तो नाशवान होते हैं और समस्त जीवोंकी आत्माको अविनाशी कहा जाता है॥16॥
भावार्थ :
परन्तु इन दोनोंके अतिरिक्त एक श्रेष्ठ पुरुष है जिसे परमात्मा कहा जाता है, वह अविनाशी भगवान् तीनों लोकोंमें प्रवेश करके सभी प्राणीयोंका भरण-पोषण करता है॥17॥
भावार्थ :
क्योंकि मैं ही क्षर और अक्षर दोनोंसे परे स्थित सर्वोत्तम हूँ, इसलिये संसारमें तथा वेदोंमें पुरुषोत्तमरूपमें विख्यात हूँ॥18॥
भावार्थ :
हे भरतवंशी अर्जुन! जो मनुष्य इस प्रकार मुझको संशय-रहित होकर भगवान् रूपसे जानता है, वह मनुष्य मुझे ही सब कुछ जानकर सभी प्रकारसे मेरी ही भक्ति करता है॥19॥
भावार्थ :
हे निष्पाप अर्जुन! इस प्रकार यह शास्त्रोंका अति गोपनीय रहस्य मेरेद्वारा कहा गया है, हे भरतवंशी जो मनुष्य इस परम-ज्ञानको इसी प्रकारसे समझता है वह बुद्धिमान् हो जाता है और उसके सभी प्रयत्न पूर्ण हो जाते हैं॥20॥
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