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॥श्री अग्र भागवत॥
सोलहवाँ अध्याय
गरल
॥जैमिनिरुवाच॥
अथैवं पूजितो हैष वसत्यतिथिमन्दिरे।
नावं लब्ध्वैव पारैषी सोऽहृष्यच्चाग्रसेनकः॥१॥
जैमिनी जी कहते हैं—नाग कन्या से विवाह सुनिश्चित हो जाने पर नागराज एवं सकल नागलोक, तथा सकल नाग समूह द्वारा इस प्रकार पूजित होकर श्री अग्रसेन वहाँ अतिथी गृह में निवास करते हुए उसी प्रकार हर्षित थे, जैसे नदी पार जाने की कामना करने वाले व्यक्ति को नाव मिल जाने से प्रसन्नता होती है।
ददर्श वै रवेः रूपं सन्ध्याभ्रारक्तकं तदा।
नवोदिते गुणास्तत्र चन्द्रपादसुशोभिताः॥२॥
वहाँ श्री अग्रसेन जी ने देखा कि सूर्य का रूप संध्या की लाली से लाल हो गया है। और तब वे नवोदित चंद्रमा की चाँदनी से शोभित होने वाले उस मनोरम प्रदेश की नैसर्गिक छटा को निहारने लगे।
विचित्रमणिमुक्ताभिर्भवनैः स्वर्णतोरणैः।
स्वयं प्रभाभिर्मणिभिर्वज्रैर्भूमिश्च भूषिता॥३॥
यह अतिथि भवन विचित्र मणियों, मोती की झालरों और सोने की तोरणों से अलंकृत था, जिसमें स्वयं प्रकाशित होने वाली मणियाँ अपनी अद्भुत छटा बिखेर रही थीं।
मधुपुष्परजः पृक्तं गन्धमादायपुष्कलम्।
सुखोऽनिलोऽवासयच्च मनस्तुष्टिविवर्धनम्॥४॥
वसंत ऋतु के विविध कुसुमों की मधुर मकरंद तथा पराग से मिश्रित प्रचुर सुगंध लेकर बहती हुई सुखद वायु मन के आनन्द को बढ़ा रही थी।
एतस्मिन्नन्तरे चन्द्रप्रगाढे रजनीमुखे।
भुजङ्गिनी समायाता पृथुश्रोणी मनोरमा॥५॥
तब चंद्रमा के निशा के आगोश में चले जाने पर छिटकी हुई चाँदनी की प्रकाश छटा में वहाँ विशाल नितम्बों वाली एक नागकन्या आ पहुँची।
मृदुकुञ्चितदीर्घेण कुमुदोत्करधारिणा।
केशहस्तेन राजन्ती साऽऽजगाम तु कामिनी॥६॥
उसके कोमल लंबे और घुंघराले केशों का समूह वेणी के रूप में आबद्ध था। जिनमें कुमुद पुष्पों के गुच्छ शोभायमान हो रहे थे, इस प्रकार सुशोभित वह कामिनी श्री अग्रसेन के निवासित स्थल की ओर बढ़ी आ रही थी।
चक्षुर्मनोहरं पीनं मेखलादामभूषितम्।
समुद्वहन्ती जघनं रतिप्राभृतमुत्तमम्॥७॥
मनोहारी नेत्रों वाली उस नागकन्या की कंचन लड़ियों से विभूषित कटि करधनी उसके पीन जघन स्थल को मानो रति के उत्तम उपहार के रूप में धारण किए हुए हो।
विक्षेपालापमाधुर्यैः कान्त्या सौम्यतयाऽपि च।
शशिनं वक्त्रचन्द्रेण साऽऽह्वयन्तीव सम्बभौ॥८॥
भौहों की भंगिमाओं, आलाप की मधुरता, उज्जवल कान्ति और सौम्य भावों से संपन्न, अपने मनोहारी चंद्रमुख द्वारा मानो चंद्रमा को चुनौती सी देती हुई वह नागकन्या अतिथी भवन के पथ पर अग्रसर थी।
नीलं सतोयमेघाभं वस्त्रं समवकुण्ठितम्।
बभावन्यतमेव श्रीः कान्तिश्रीद्युतिकीर्तिभिः॥९॥
वह भुजंगिनी सजल जलधर के समान नील आभा से युक्त वस्त्रों से अपने अंगों को ढके हुए अपनी अलौकिक कांति (शोभा) युक्त एवं सौंदर्य कीर्ति से युक्त साक्षात् ऐश्वर्या के समान प्रतीत हो रही थी।
गच्छन्त्या हाररुचिरौ स्तनौ तस्या ववल्गतुः।
स्तनोद्वहनसंक्षोभान्नम्यमाना पदे पदे॥१०॥
उस नागकन्या के चलते समय सुन्दर हारों से विभूषित उठे हुए स्तन जोर-जोर से हिल रहे थे, मानों दीर्घस्तनों के भार को वहन करने के कारण वह थक-थक कर पग-पग पर झुक-झुक जाती हो।
ऊरू करिकराकारौ करौ पल्लवकोमलौ।
त्रिवलीदामचित्रेण मध्येनातीव शोभना॥११॥
उस नाग सुन्दरी के दोनों हाथ ऐसे कोमल थे मानों देह रूपी वृक्ष की डाल के नव पल्लव हों, जांघो का उतार-चढ़ाव हाथी की सूंड के समान और उसका अत्यन्त सुन्दर मध्य भाग (कटिप्रदेश) त्रिवली रेखा से विचित्र शोमा को धारण किए हुआ था।
अधोभूधरविस्तीर्णनितम्बानतपीवरम्।
मन्मथायतनं तस्याः रशनादामभूषितम्॥१२॥
नाभि के नीचे के भाग में उन्नत और स्थूल विशाल नितम्ब पर्वत के समान प्रतीत होते थे। जैसे वह कामदेव का उज्जवल मंदिर जान पड़ती थी।
विलासैर्विविधैः सा तु प्रेक्षणीयतराभवत्।
ऋषीणामपि दिव्यानां मनोव्याघातकारणम्॥१३॥
इसप्रकार विविध विलासिताओं से युक्त उस कामिनी का अत्यन्त मोहक दर्शनीय स्वरूप देवताओं और ऋषियों के चित्त को भी मोहित कर देने वाला था।
सुसूक्ष्मेणोत्तरीयेण तुष्टिदा मदनस्य च।
तनुवस्त्रावृताऽऽयाता पन्नगी सा विलासिनी॥१४॥
भवन की ओर आती हुई वह विलासिनी नागकन्या अत्यन्त ही महीन उत्तरीय धारण किए हुए थी। सुन्दर अंगों वाली वह कन्या अपने शारीरिक सौंदर्य से मानो कामदेव को संतुष्ट कर रही थी।
सा शङ्कितमनाः प्रत्युदगच्छत् तं तदा निशि।
दृष्ट्वैव पन्नगीम् अग्रसेनो लज्जालुलोचनः॥१५॥
उस अतिथी भवन में रात्रि में (अनायास) आई उस पन्नगी के समक्ष श्री अग्रसेन अत्यन्त शंकित हृदय से उपस्थित हुए। उसे अकारण इस प्रकार कामुक स्वरूप में आई हुई देखकर उनके नयन लज्जा से मुंद गए।
तमेकं रहिते दृष्ट्वा पन्नगी चारुहासिनी।
प्रत्युद्गताञ्जलिं कृत्वा राजानं वाक्यमब्रवीत्॥१६॥
तब उस मनोहर हासवाली पन्नगी ने उन्हें अकेला देखकर आगे बढ़कर हाथ जोड़कर महाराजा अग्रसेन से यह बात कही—
॥पन्नगी उवाच॥
कामेन मोहिता चाहं त्वां भजन्तीं भजस्व माम्।
त्वामुद्दिश्य तु मे सर्वं विभूषणमिदं कृतम्॥१७॥
उस पन्नगी ने कहा—हे राजन्! आपसे मोहित मैं काम के वशीभूत होकर आपकी सेवा में आई हूँ। आप मुझे स्वीकार करें। मैंने यह सारा शृंगार आपके लिये ही धारण किया है।
मयाऽऽननरसस्याद्य पद्मोत्पलसुगन्धिनः।
माधुर्यममृतस्येव त्वां तृप्तिं प्रापयिष्यति॥१८॥
कमल तथा उत्पल की गंध से युक्त मेरे मुखारविंद का रस अमृत से भी श्रेष्ठ सुधारस है। राजन्! आप आज इस सुधा सौरभ के आस्वादन से तृप्त हो जाइये।
सुवर्णचक्रप्रतिमं स्वर्णभूषार्चितं पृथु।
अध्यारोह त्वमद्यैतद् जघनं स्वर्गरूपि मे॥१९॥
हे राजन्! आप निश्चिन्त होकर सोने की लड़ियों से विभूषित स्वर्ण चक्र के समान विपुल विस्तार से युक्त पीन जघन स्थल पर मूर्तिमान् सुखद स्वर्ग पर आरोहण कीजिए।
सर्वान् कामानुपाश्नीमो ये नागानां न वा नृणाम्।
प्रार्थिनीम् उपगूहैनां मां कामार्तां भृशं त्वयि॥२०॥
हे राजन्! हम लोग यहाँ नाग लोक तथा मनुष्य लोक के सभी भोगों का उपभोग करेंगे। मैं आपसे प्रार्थना करती हूँ, कि आप मेरा आलिंगन कीजिए। मैं आपके प्रति अत्यन्त कामातुर हूँ।
॥जैमिनिरुवाच॥
तथा ब्रुवन्तीं तां श्रुत्वा भृशं लज्जानतोऽग्रणीः।
उवाच कर्णौ हस्ताभ्यां पिधाय भुजगालये॥२१॥
जैमिनी जी कहते हैं—हे राजन्! नागलोक के उस अतिथिभवन में उस नागसुन्दरी की इस प्रकार लज्जाहीन एवं कामज बातें सुनते ही श्री अग्रसेन अत्यन्त लज्जा से संवृत्त होकर दोनों हाथों से अपने कानों को मूंदकर कहने लगे—
॥अग्रसेन उवाच॥
दुःश्रुतं मेऽस्तु सुभगे यन्मां वदसि भामिनि। त्वं स्वसुर्मे समा मन्ये निश्चयेन वरानने॥२२॥
श्री अग्रसेन ने उस कामिनी से कहा—हे सौभाग्यशालिनी! भाविनी! तुमने जिस प्रकार की बातें कहीं, वे सब सुनना भी मेरे लिये अत्यंत दुःख की बात है। हे वरानने! निश्चय ही तुम मेरी दृष्टि में बहिन के समान हो।
॥पन्नग्युवाच॥
त्वं प्रसीद न मामार्तां विसर्जयितुमर्हसि। हृच्छयेन च संतप्तां भक्तां च भज मानद॥२३॥
तब पन्नगी ने कहा – हे माननीय! आप मुझ पर प्रसन्न होइये। मैं कामवेदना से पीड़ित हूँ, इस तरह मेरा त्याग न कीजिये। राजन्! मैं तुम्हारी भक्त हूँ, और मदनाग्नि से दग्ध हो रही हूँ, अतः मुझे अंगीकार कीजिये।
समावेतौ मतौ राजन् पतिः सख्याश्च यः पतिः।
समं विवाहमित्याहुः सख्या मेऽसि वृतः पतिः॥२४॥
हे राजन्! अपना तथा अपनी सखि का पति—दोनों ही समान माने गए हैं। सखी के साथ ही उसकी सेवा में रहने वाली दूसरी कन्यायें भी पत्नी स्वरूप ही होती हैं। मेरी सखी (माधवी) ने आपको अपना पति निश्चित किया है। अतः मैने भी मन से आपको अपना पति स्वीकार कर लिया है।
सा त्वां प्रसाद्याहमृतुं फलयामि नराधिप।
प्रहृष्टा भव हे राजन् समागच्छ मया सह॥२५॥
हे नरपति! मैं आपको प्रसन्न करके प्रार्थना करती हूँ कि आप मुझे प्रसाद स्वरूप नारी जीवन का अमृत प्रदान करें। हे राजन्! आप प्रसन्न हों तथा मेरे साथ समागम करें।
॥जैमिनिरुवाच॥
स्त्रीणां न कामतोऽन्योऽस्ति पुरुषार्थो नराधिप।
नातः पुरुषसंसर्गान्नारीणां हि प्रियं परम्॥२६॥
जैमिनी जी कहते हैं – हे महाप्राज्ञ जनमेजय! पुरुष को अपने समीप पाकर स्त्री को उससे कामाचार को छोड़कर अन्य किसी कृत्य से संतुष्टि नहीं होती। स्त्रियों के लिये पुरुष के संसर्ग से बढ़कर और कुछ भी उतना प्रिय नहीं होता।
आत्मच्छन्देन वर्तन्ते नार्यो मन्मथचोदिताः।
लीलायन्त्यः कुलं घ्नन्ति कूलानीव सरिद्वराः॥२७॥
काम से प्रेरित नारियाँ सदा अपनी इच्छा के अनुसार ( स्वेच्छाचारपूर्ण ) व्यवहार करती हैं, रति की इच्छा से ये कुल की समस्त मर्यादाओं का नाश कर डालती हैं। ठीक उसी तरह जिस तरह उफनती नदी अपने तटों को तोड़ डालती है।
निर्विकारोऽग्र एकाग्रः पन्नगीं प्रत्यभाषत।
जैमिनी जी कहते है—इस प्रकार काम के वशीभूत निर्लज्ज हुई उस पन्नगी को निर्विकार श्री अग्रसेन ने तब एकाग्रचित होकर कहा—
॥अग्रसेन उवाच॥
आस्यतां रुचितश्छन्दः किं च कार्यं मया वद॥२८॥
श्री अग्रसेन ने कहा—चुप रहो! भोग कामना से स्वेच्छाचारिणी हुई पन्नगी! इसके अतिरिक्त यदि कोई काम हो तो कहो, यह मुझसे संभव नहीं।
॥जैमिनिरुवाच॥
एवमुक्ताऽग्रसेनेन पन्नगी क्रोधमूर्छिता।
वेपमानभ्रुकुटिकाऽथाग्रसेनम् उवाच ह॥२९॥
जैमिनी जी कहते हैं—श्री अग्रसेन के ऐसा कहने पर वह पन्नगी क्रोध से अत्यन्त व्याकुल हो उठी, उसका शरीर काँपने लगा, भौहें टेढ़ी हो गईं और तब वह श्री अग्रसेन से रोषपूर्वक इस प्रकार कहने लगी—
॥पन्नगी उवाच॥
यस्मान्मां नाभिनन्देस्त्वं कामबाणवशं गताम्।
दानं धर्मच्छलं कृत्वा षण्ढवत्तु त्वया कृतम्॥३०॥
पन्नगी बोली – राजन्! कामबाण से घायल नारी का तुमने निरादर किया है। तुम्हारा यह कृत्य नपुंसकों की तरह (पौरुषहीन) है, तुमने याचना करने पर भी रतिकर्म न करके सर्वोत्तम दान (रतिदान) के धर्म स्वरूप के साथ छलना की है अर्थात् तुम धर्मशील नहीं हो।
न वक्ष्यामि वृथा वाचं त्वयाऽग्र न रता यदि।
विषास्त्रैः पातयिष्यामि विजेष्यामि रतेन वा॥३१॥
हे अग्र! मै व्यर्थ (झूठ) नहीं कहती (आज विजय मेरी ही होगी)। यदि मैं तुमसे रमण नहीं कर सकी, तो मैं तुम्हें तीक्ष्ण विषबाणों से बींधकर गिरा कर, तुम्हे जीतूंगी अथवा प्रेम से समागम द्वारा जीतूंगी। यह मेरा दृढ़ निश्चय है।
मत्सङ्गतः सुखावाप्तिर्यन्न प्राप्ता त्वया पुरा।
गरलैः पीड्यमानोऽथ मृतो व्यर्थं गमिष्यसि॥३२॥
हे राजन्! ऐसी स्थिती में मेरा संग करने से तुम्हें ऐसे अपूर्वसुख की प्राप्तियाँ होंगी, जो तुम्हे पहले कभी प्राप्त नहीं हुआ होगा अन्यथा गरल से घायल होकर व्यर्थ ही मारे जाओगे।
॥जैमिनिरुवाच॥
अग्रसेनस्तदा वीक्ष्य ब्रुवन्तीं कामपीडिताम्।
चिन्तयामास तां शूर्पणखां लक्ष्मणवद् हृदि॥३३॥
जैमिनी जी कहते हैं—हे धर्मज्ञ जनमेजय! उस समय उस कामपीड़िता पन्नगी के इस प्रकार आचरण को देखकर श्री अग्रसेन अपने हृदय में श्री लक्ष्मण जी और सूर्पनखा के उस प्रसंग का विचार करने लगे।
॥अग्रसेन उवाच॥
हरन्ति दोषजातानि नरं जातं यथेच्छकम्।
प्रभुर्वरा धृतिः शक्तिः भद्रे स्वभवनं व्रज॥३४॥
तब श्री अग्रसेन ने विनम्रतापूर्वक समझाते हुए उससे कहा – हे भद्रे! स्वेच्छाचारियों को ही सदैव सब प्रकार के पाप समूह अपनी ओर खींचते हैं, अतः हे पन्नगी! आप शक्ति और धृति के सहारे धैर्य धारण करें और आप अपने घर लौट जायँ।
मन्मथाऽ ऽसादिता नारी त्वं प्रणष्टसुचेतना।
प्राप्यात्मबलमेवैकं भद्रे स्वभवनं व्रज॥३५॥
हे नाग सुकन्ये! रति की तीव्र इच्छा से कामान्ध होने के कारण ही आपका धर्म और अधर्म के निणर्य का विवेक नष्ट हो गया है, अतः अपने आत्मबल के सहारे आप सामान्य हो और धैर्य स्थापित कर अपने घर को लौट जायँ।
॥पन्नगी उवाच॥
जिज्ञासेयं प्रयुक्ता मे दृष्टं स्त्रीचापलं न ते।
अव्युत्थानेन ते लेकाः जिताः सत्यपराक्रम॥३६॥
तब उस पन्नगी ने कहा—हे नरश्रेष्ठ! मैंने आपकी परीक्षा लेने के उद्देश्य से ही यह कार्य किया। नारी की चपलता का भी आपको दर्शन कराया (प्रेम, कामना, याचना, रोष, व्यंग्य, बदला, भय आदि अनेक रूप) तथापि हे सत्य पराक्रमी नरेन्द्र! आपने अपने धर्म से विचलित न होकर सभी पुण्य लोकों को जीत लिया।
॥जैमिनिरुवाच॥
प्रत्यागता चैवमुक्त्वा कामिनी गृहमात्मनः।
रेमे स नागभवने तथाग्रः परवीरहा॥३७॥
जैमिनी जी कहते हैं—राजन्! जनमेजय! श्री अग्रसेन से इस प्रकार वास्तविकता कहकर वह नाग रूपसी कामिनी स्वयं ही अपने घर को लौट गई और तब श्री अग्रसेन उस अतिथि भवन में सुख पूर्वक रहने लगे।
(विचारणीयः ॥३३॥ वें श्लोक में महाराजा अग्रसेन की उस स्थिति का विश्लेषण किया गया है, जब कामाचारिणी पन्नगी के आचरण को देख वे श्री लक्ष्मण और सूर्पनखा के पूर्व में घटित इसी प्रकार के प्रसंग को ध्यान कर 'विचार करने लगे' और विचार कर उन्होंने जो निर्णय लिया वह उनकी मानवीय गरिमा को बढ़ाने वाला साबित हुआ। महाराजा श्री अग्रसेन ने उस परिस्थिति का प्रतिकार अपनी धैर्य बुद्धि से कामाचारिणी पन्नगी को शांतिपूर्ण ढंग से समझाकर ही दिया। रोषित या कुपित होकर नहीं।) संकट के समय, धैर्य धारण कर विवेकपूर्ण निर्णय लेने से अनिष्ट का विनाश होता है।
नैशाकरे रश्मिजाले क्षणदाक्षयसंहृते।
नभस्यरुणसन्तीर्णे पर्यस्ते ज्योतिषां गणे॥३८॥
जैमिनी जी कहते हैं—रात्रि की समाप्ति के साथ ही चंद्रमा ने अपनी किरण जाल को समेट लिया, तब आकाश में अरुणोदय की लाली छाते ही नक्षत्रों का समूह अस्त हो गया।
सर्पदंशस्याथ भृत्याः जग्मुस्तत्र सहस्रशः।
वमन्तश्च धमन्तश्च विषपूरप्रवर्षिणः॥३९॥
तदनंतर वहाँ 'सर्पदंश' नामक नाग, सहस्र नागों के साथ आया और उसी समय विष प्रवाह की वर्षा करने वाला वह अपने तीखे शब्दों से विषवमन करने लगा।
॥सर्पदंश उवाच॥
नृणां शरीरान्तकरो नागलोकस्य सैन्यपः।
प्राप्तुमिच्छन्माधवीं तां तत्पतित्वं वृणोम्यहम्॥४०॥
त्वं वै समागतानस्मान् माधव्यै विनिवेदय।
सर्पदंश बोला—(अग्रसेन!) मैं इस नागलोक का भुजंगपति सर्पदंश हूँ, जो अपने विषदंश से प्राणियों का पलभर में ही विनाश कर देता हूँ, नागराज पुत्री को पहले से ही मैं प्राप्त करना चाहता हूँ और माधवी को मुझे ही पतिरूप में वरण करना होगा। इस बात को तुम माधवी के पास जाकर मेरी ओर से कह दो।
॥अग्रसेन उवाच॥
कथं त्वं जातसङ्कल्पं प्रेषयेः परमीदृशम्॥४१॥
श्री अग्रसेन ने कहा—विषधर! जिसने किसी नारी को वरण करने का संकल्प कर लिया हो, वह इस प्रकार अपनी पत्नी को भला दूसरे के लिये कैसे छोड़ सकता है।
॥जैमिनिरुवाच॥
ततः प्ररुद्धो बहुभिः समन्तात् तैर्महाविषैः।
शुशुभे यमुनावारि गतो नन्दात्मजो यथा॥४२॥
जैमिनी जी कहते हैं—तदनंतर उन बहुसंख्यक महाविषैले नागों ने चारों ओर से श्री अग्रसेन को घेर लिया। उस समय ऐसा प्रतीत होने लगा, मानो यमुना के जल में प्रवेश करने पर कालिया नाग से घिर जाने पर नन्दकिशोर श्रीकृष्ण शोभित हो रहे हों।
अथ भस्मनिभं वीक्ष्य जातं सर्वत्र फुत्कृतैः।
फणावायुजवैरग्रसेनोऽदग्धो व्यचिन्तयत्॥४३॥
तत्पश्चात जब श्री अग्रसेन ने देखा कि उन विषधरों के फनों से, सभी ओर से उत्पन्न विषाक्त वायु के वेग से, संयुक्त फूत्कारों से उनकी आत्मा विदग्ध होने लगी है, तो—
विषजं कश्मलं देहेऽविशद् घोरम् अथाग्रणीः।
स घूर्णमानहृदयः सेवकानिदमब्रवीत्॥४४॥
तो विष जनित प्रहारों के प्राप्त होने से श्री अग्रसेन पर मोह सा छा गया, उन्हें चक्कर सा आने लगा, तब उन्होंने सेवकों से इस प्रकार कहा—
दहन्त्यङ्गानि मे नागा न दिशः प्रतिभान्ति च।
सीदामीव च सम्मोहात् घूर्णतीव च मे मनः॥४५॥
दृष्टिर्भ्राम्यति मेऽतीव हृदयं दीर्यतीव च।
ब्रूताशुदेवं नागेन्द्रं पतिष्याम्यवशोऽस्म्यहम्॥४६॥
'हे रक्षक नागों! मेरे अंगों में तीव्र जलन हो रही है।' दिशाएँ मुझे बराबर नहीं सूझ रही, मैं शिथिल हो रहा हूँ और मोहवश मेरे मस्तिष्क में चक्कर-सा छा रहा है, मेरे नेत्र घूम रहे हैं, हृदय अत्यन्त विदीर्ण हुआ जा रहा है, मैं अभी ही विवश होकर गिर पड़ूँगा। यह सब तुम शीघ्र ही नागराज को बता दो।
ततः पिपीलिकास्त्रं तद् अग्रसेनेन तु स्मृतम्।
ताभिर्विलिप्तगात्रास्ते ततस्तं विजहुस्तदा॥४७॥
तदनंतर वीर अग्रसेन ने पिपीलिका अस्त्र का प्रयोग किया। उस अस्त्र से निकली हुई चींटियाँ उन नागों के शरीर से लिपट गई, तब वे नाग उस स्थान को छोड़कर भाग खड़े हुए।
सर्पदंशस्य सर्वाङ्गं जातं पलविवर्जितम्।
भित्त्वाऽस्थीनि पुनर्मज्जा पन्नगस्य पिपीलिकाः॥४८॥
भुजंगपति सर्पदंश नाग का जब सारा शरीर मांस हीन हो गया, तब चींटियाँ पुनः उसकी हड्डियों को फोड़कर उसकी चर्बी चाटने लगीं।
अस्थीनि चिञ्चाफलवत् कोटरं प्रत्यकुर्वत॥४९॥
उस समय चींटियों ने उसकी हड्डियों को इमली के फल के समान खोखला कर दिया था।
नागेन्द्रो मुनिना तत्र सम्प्राप्तस्तावदब्रवीत्।
भव स्वस्थमना राजन् न हि ते विद्यते भयम्॥५०॥
तभी नागराज महीधर के साथ ही वहाँ महामुनि उद्दालक भी आ पहुँचे। तथा श्री अग्रसेन को देखकर महामुनि ने नागराज को आश्वस्त करते हुए कहा – हे नागप्रवर! भयभीत न हों, निश्चिंत रहें, आपका हित ही होगा।
नागेन्द्रस्तान् प्रभिन्नाङ्गान् प्रत्युवाच हसन्निव।
पलायनं कथं वोऽस्मान्मानुषाद् युद्धकोविदाः॥५१॥
भुजंगपति सर्पदंश के इसप्रकार सारे ही अंगों को विकृत हुआ देखकर नागराज महीधर हँसने लगे और हँसते हुए बोले– भुजंगपति! आप तो युद्धकला के विशेषज्ञ हैं, फिर इस (साधारण) मनुष्य के सामने आप कैसे भागने लगे?
॥जैमिनिरुवाच॥
अग्रसेनमपानीय तं च घोरं महाज्वरम्।
व्यनाशयद् विषोत्पन्नमुद्दालकमुनिः क्षणात्॥५२॥
जैमिनी जी कहते हैं—हे जनमेजय! तदनंतर श्री अग्रसेन की उस भयंकर चिन्ताजनक विषाक्त अग्नि से उत्पन्न हृदय की पीड़ा को महामुनि उद्दालक ने (अपनी मंत्र-शक्ति से) क्षणभर में ही नष्ट कर दिया।
॥उद्दालक उवाच॥
दिष्ट्या बुद्धिस्त्वया धर्मे निविष्टा हि नरोत्तम।
भूयो भूयश्च ते बुद्धिधर्मे भवतु सुस्थिरा॥५३॥
महर्षि उद्दालक ने (श्री अग्रसेन जी को आशीवार्द देते हुए) कहा—हे नरोत्तम अग्रसेन! यह सौभाग्य की बात है कि तुम्हारी बुद्धि दृढ़तापूर्वक धर्म में लगी हुई है। मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूँ कि तुम्हारी बुद्धि, समस्त जीव मात्र के प्रति धर्म में सदैव स्थिर रहे।
॥इति जैमिनीये जयभारते भविष्यपर्वणि अग्रोपाख्यानस्य यद्विरचितम् श्रीमदग्रभागवते षोडशोऽध्यायः॥
॥शुभं भवतु कल्याणम्॥
महर्षि जैमिनी विरचित जयभारत के भविष्यपर्व के अग्रोपाख्यानम् के श्रीमद् अग्रभागवतम् स्वरूप का सोलहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।
यह शुभकारी आख्यान सबके लिये कल्याणकारी हो।