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॥ श्री अग्र भागवत ॥
सप्तम अध्याय
आश्रम
महर्षि जैमिनी जी कहते हैं— बालुका वन में भटक रहे, उनके दोनों पैरों में चुभे हुए तीक्ष्ण कांटे, श्री अग्रसेन को अत्यंत पीड़ित कर रहे थे। उनके दोनों चरणों से रुधिर टपक रहा था।
इस प्रकार दुःखातुर वे मन ही मन विचार करने लगे कि मैं क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? ऐसे क्लेश पूर्ण जीवन का क्या अर्थ? अर्थात् निरर्थक है ऐसा जीवन, अतः प्राणों का परित्याग कर देना ही उत्तम है।
वह वन अत्यंत दुरूह था, तथापि किसी राज्य के अधीन नहीं था। वहाँ महर्षि गर्ग का आश्रम था। यज्ञ काष्ठ के लिए वहाँ आए महामुनि गार्ग्य ने वहाँ श्री अग्रसेन को इस प्रकार दुःखातुर देखा।
युवा श्री अग्रसेन को वहाँ लज्जित तथा शोक संतप्त बैठे देखकर महामुनि गर्ग का हृदय उनके दुःख से अत्यंत द्रवित हो गया और तब मुनि ने उनसे पूछा— हे वत्स! तुम कौन हो? और यहाँ आने का क्या कारण है? मुनि के प्रियवचन सुनकर निश्चल हुए श्री अग्रसेन ने महर्षि गर्ग के श्रीचरणों में अभिवादन करके कहा—
हे मुनेश्वर! मैं प्रतापपुर का युवराज, महाराज श्री वल्लभसेन का पुत्र अग्रसेन भाग्य के प्रकोप से यहाँ आ गया हूँ।
और वे मन ही मन विचार करने लगे कि यह दुःखद विपत्ति जिसने मुझे इस क्लेशपूर्ण स्थिति में डाल दिया है, मैं किसी से कैसे कहूँ? हा! मेरा ऐसा क्या पाप है? मैंने ऐसा क्या पाप कर्म किया है? जिसके कारण मुझे इस प्रकार विपत्ति को भोगना पड़ रहा है।
माननीय पिताश्री (वल्लभसेन) ने स्वर्ग के समान अनन्त सुख देकर हमारा लालन पालन किया था। धर्मयुद्ध (महाभारत) में वे क्षत्रियों की अनित्य गति को प्राप्त हुए। जिससे हम उस सौभाग्य से वंचित हो गए।
भोग तथा ऐश्वर्य की आसक्ति ने हमारे पिताश्री के भाई ( कुन्दसेन आदि) की बुद्धि तथा चित्त का हरण कर लिया। जिसके कारण उन्होंने अतीव द्वेष से युक्त होकर ही मेरा परित्याग कर दिया।
हे महामुने! समुद्रशास्त्र के लाक्षणिक विद्वान्, ज्योतिषशास्त्र के सिद्धांतों के ज्ञाताओं तथा श्रेष्ठ ब्राह्मणों के वे वचन कि 'मेरा राज्य पर अभिषेक होगा' आज सभी असत्य हो गए।
हे मुनिवर! मैं नहीं जानता कि मेरा क्या दोष विशेष था? या फिर किस लिये भाग्य का क्षय हुआ, जिसके कारण स्नेह से रहित होकर स्वजनों ने इस प्रकार बलात् छल से मुझे मरवाने का उपक्रम किया।
सोते हुए मुझ असमर्थ को बाँधकर वध करने हेतु कारागार में डलवा दिया गया, किन्तु दैवयोग से असमर्थ की भांति मैं अपनी जन्मभूमि छोड़कर जीवन की रक्षा हेतु यहाँ आ गया।
इस कृतांत ने मुझे मिट्टी में मिला दिया है, पूर्णतः विनिष्ट कर दिया है और में अनाथ कहलाने के योग्य हो गया हूँ। मृत्यु के मुख से बचकर बन्धनों से मुक्त होकर वेगपूर्ण भागकर मैं यहाँ आ गया हूँ।
हे मुनिवर! इस प्रकार जब स्वजनों ने ही मेरा छलपूर्वक परित्याग कर दिया, तब किस प्रकार दीन-लाचार और शोकसंतप्त हृदय से युक्त मैं अब कहाँ जाऊँ? मुझे कुछ समझ नहीं आता।
हे तेजस्वी महामुने! अब न मेरी राज्य की आकांक्षा है, न मुझे सुख की चाह ही। अब तो मुझमें जीने की भी अभिलाषा नहीं और इस लोक में जीने के लिये भिक्षुक की भांति भिक्षान्न भोग करके जी लेना ही मैं कल्याणकारी समझता हूँ।
मुझे तो अब यह लगता है कि महाभारत की परिकल्पना (संरचना) भी इस राज्य के कारण ही हुई, जो कि महानतम विनाश का कारण बनी। जिसमें अनेकों दुःसह, अजेय वीरों तथा अन्य अनेकों पराक्रमियों की आहुति दी गई। अतः मैं अब ऐसे राज्य का कदापि आकांक्षी नहीं।
मुझे तो लगता है कि राज्य ही युद्धों का मूलभूत कारण है, क्यों न मैं इस युद्ध के कारण का निवारण करूँ? अतः जीवन को व्यर्थ क्लेश में डालने से मैं अब भिक्षा से प्राप्त अन्न को ग्रहण कर अपना जीवन यापन करना ही श्रेष्ठ समझता हूँ।
जैमिनी जी कहते हैं— श्री अग्रसेन के इस प्रकार विरक्त वचनों को सुनकर महर्षि गर्ग ने उन्हें आश्वस्त करते हुए अपने सांत्वना प्रदायक वचनों से इस प्रकार समझाया।
महर्षि गर्ग ने कहा— वत्स! जगत् में सब कुछ काल की गति के अनुरूप ही है। जो तुमने बताया उस दैव विधान को लांघना अत्यंत दुष्कर है। यह भगवान् विष्णु की अदृश्य रूप रहने वाली माया ही है, जिससे सारा जगत् मोहित हो रहा है। वत्स! उस महामाया के स्वरूप को जानना देवताओं के लिये भी दुष्कर है।
हे वत्स! ज्ञानी जनों का यह कथन है कि जो बीत चुका उस पर शोक करना उचित नहीं। जिनके प्राण चले गए अर्थात् मृत्यु को प्राप्त स्नेही जनों तथा जिनके प्राण नहीं गए अर्थात् जो जीवित हैं, उनके लिये भी विलक्षण पुरुष शोक नहीं करते।
वत्स! जो व्यक्ति इस लोक के ऐहिक पुरुषार्थ, नष्ट प्रतीत होने से भिक्षुक या संन्यासी सा आचरण करने की चेष्टा करते हैं, ऐसा करके वे पुरुषार्थ के परित्याग से दोषपूर्ण कर्मों में ही प्रवर्त होते हैं।
वत्स! जो दुर्बल और कातर स्वतः के कार्यों की साधना में असमर्थ होने के कारण पुरुषार्थ साधन का परित्याग कर संन्यास का अनुसरण करते हैं, वे तो धर्म के मूल अर्थ का ही उच्छेद कर रहे हैं, ऐसा मेरा स्पष्ट मत है।
वत्स! पराक्रम शून्य, असमर्थ, डरपोक, निस्तेज तथा धैर्यहीन मनुष्य अपने यश तथा पुरुषार्थ दोनों का ही विनाश करता है।
वत्स! जिस अमरता को मुनिगण महत्त तपस्या करके प्राप्त करते हैं, क्षत्रिय पुरुष अपने पराक्रम से ही उस अमृत्व का वरण कर लेते हैं।
यह जो महाक्लेश तुम्हें तुम्हारे ही स्वजनों द्वारा दिया गया है, हे वीर वत्स! उसे तुम अपने पराक्रम से दूर करो। चिन्ता छोड़ो और उठो!
अत्यंत विषम परिस्थिती प्राप्त होने पर भी सदाचार रूपी कवच से प्राणों को आवृत कर लेने पर सत्य और स्वर्ग दोनों पर विजय प्राप्त की जा सकती है, इसमें कदापि संशय नहीं।
इस संसार में दुःख से व्याकुल चित्त होकर, अपने लिये कोई आश्रय ढूंढने वाले समस्त प्राणियों के लिए मुनियों के आश्रमों के अतिरिक्त और कोई दूसरा उपाय नहीं है।
वत्स अग्रसेन! आशा बड़ी बलवान होती है, वह एक ऐसी आश्चर्य युक्त सांकल है, जिससे बंधे हुए प्राणी वेगपूर्ण दौड़ते हैं, उपक्रम करते हैं, किन्तु जो उस आशा के बंधन से विमुक्त हैं, वे पंगु की भाँति अकर्मण्य पड़े रहते हैं।
हे वत्स! अब तुम अपने पत्र, पुष्प एवं फल से सम्पन्न इस रमणीय आश्रम में आ गए हो। तुम्हें राज्य, यश, कीर्ति एवं सभी मनोरथों की पूर्णता निश्चित ही प्राप्त हो जाएगी।
वत्स! ऋषियों के आश्रमों में निवास करके ही सदैव क्षत्रियों ने बल प्राप्त किये हैं, (पूर्व में ऐसे अनेकों उदाहरण है—सुरथ-समाधि, राम-सीता, लव-कुश, पाण्डव आदि) अतः तुम कुछ समय यहाँ रहकर उस परम विद्या का अभ्यास करो।
वत्स! अपने हृदय में उत्पन्न तुच्छ कायरता, अपने हृदय की दुर्बलता एवं भय का परित्याग कर उठ खड़े होओ। मैं निश्चित ही ऐसा उपाय करूँगा कि तुम पूजनीय हो जाओगे।
तब विनययुक्त श्री अग्रसेन ने कहा – महर्षे! मैं आपके दर्शन तथा आपके वचनों से इतना अधिक कृतार्थ हुआ कि मुझे आपके प्रत्युत्तर में कोई शब्द नहीं सूझता। भगवन्! आपने मुझमें जीवन के प्रति नव उत्साह प्रदान किया है। निराशा का अंत करके नवजीवन के दर्शन कराए हैं।
जैमिनी जी कहते हैं – महामुनि गर्ग के इस प्रकार मार्गदर्शक वचनों को सुनकर श्री अग्रसेन उसी प्रकार प्रसन्न हुए, जिस प्रकार मयूर मेघों का नाद सुनकर हर्षित होता है और तब वे सहर्ष मुनि के पीछे पीछे चलने लगे।
वहाँ से महर्षि गर्ग के आश्रम में पहुँचकर सौभाग्यशाली श्री अग्रसेन ने उन्हें प्रणाम किया। महर्षि गर्ग ने भी श्री अग्रसेन को पुत्रवत स्नेह पूर्वक अपनाया ।
सर्वत्र परम शोभा से सम्पन्न उस आश्रम को उन्होंने देखा जो कि मन में अद्भुत आनन्द तथा उल्हास की सृष्टि कर रहा है। जहाँ शीतल मंद पवन आल्हाद बढ़ाने वाली है।
विपुल विशाल वृक्ष अपनी शीतल व सुखद छाया से युक्त हैं। अनेकों पक्षी चहक-चहक कर गान कर रहे हैं। भांति-भांति के पुष्पों ने आश्रम को अलंकृत किया हुआ है।
इस प्रकार मन को रमणीय लगने वाले इस तपोवन में स्थान-स्थान पर अग्नि होत्र की अग्नि प्रज्वलित हो रही है। इस अनुपम आश्रम का श्री अग्रसेन ने मन ही मन अभिवादन किया।
श्री अग्रसेन ने वहाँ आश्रम के समीप बहने वाली पुण्य सलिला (नदी) के भी दर्शन किए। वह आश्रम देवलोक सा प्रतीत होता था जो पूर्णतः सभी ओर से अत्यंत मनोहारी है।
यह आश्रम जहाँ चीते भी मत्सरता त्यागकर मृगों के साथ विचरण कर रहे हैं, तथा व्याघ्र और सिंह हर्षपूर्वक गायों के साथ क्रीड़ा कर रहे हैं।
उन्होंने वहाँ जितेन्द्रिय, महाभाग्यशाली तथा स्वर्गलोक की प्राप्ति के मार्ग पर प्रशस्त मुनियों से सेवित रमणीय आश्रम मण्डल को देखा, जहाँ तपस्वीगण निवास करते हैं।
श्री अग्रसेन ने वहाँ ऋग्वेद की क्रमबद्ध पढ़ी जा रही वैदिक-ऋचाओं को सुना। यज्ञविद्या के विशेषज्ञ तथा यजुर्वेदी ऋषि आश्रम की जहाँ शोभा बढ़ा रहे हैं।
नियम पूर्वक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने वाले सामवेदी महर्षियों द्वारा सुमधुर स्वर में सामवेद का गान किया जा रहा है। अथर्वेदीय ऋषि प्रवर क्रम सहित पदों का पाठ कर रहे हैं।
शुभाचरण वाली ऋषि पत्नियों एवं ऋषिपुत्रों से शोभायमान तथा तपस्वी महात्माओं से युक्त उस आश्रम को देखकर श्री अग्रसेन अपने भविष्य के प्रति पूर्णतः आश्वस्त हो गए।
श्री अग्रसेन ने जब प्रसन्नता पूर्वक सबको बारंबार नमस्कार किया तो उन ऋषियों, ऋषि पत्नियों एवं ऋषि कुमारों ने महामना अग्रसेन को अनेकानेक शुभ आशीर्वाद दिये।
तदनंतर मुनिकुमारों द्वारा नव निर्मित पर्णकुटी में वे निवास करने लगे तथा प्रतिदिन महर्षि गर्ग के श्रीचरणों में नमन करते हुए उनसे ज्ञान कथाओं का श्रवण करने लगे।
जैमिनी जी कहते हैं— हे महात्मन जनमेजय! महाव्रतों का पालन करने वाले तपस्वियों, ऋषियों, महर्षियों से सभी ओर से आवृत यह श्रेष्ठ एवं शुभ आश्रम महर्षि गर्ग की तपस्या से संरक्षित एवं उत्तम गुणों से संयुक्त अत्यंत मंगलकारी है।